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________________ O जैनविद्या - 20-21 नाहंकार वशीकृतेन मनसा न द्वेषिणा केवलं, नैरात्मयं प्रतिपद्य नश्यति जनो कारुण्य बुद्धया मया। राज्ञ श्री हिमशीतलस्य सदसि प्रायो विदग्धात्मनो, बौद्धोधान सकलान्विजित्य सुगत: (सघट:) पादेन विस्फोटितः।। अकलंकदेव के समय के विषय में अकलंक चरित में निम्न पद्य प्राप्त होता है, पर इस पर विद्वानों में दो पक्ष उभरते हैं- विक्रमार्क शकाब्दीय शतसप्त प्रभाजुषि। कालेऽकलंक यतिनो बौद्धेर्वादो महानभूत्॥ उपर्युक्त श्लोक में विक्रम संवत् और शक शब्द वाचक शब्द होने से विद्वानों में दो पक्ष हो गये हैं। विक्रमार्क को माननेवाले डॉ. श्रीकृष्ण शास्त्री तथा जुगलकिशोरजी मुख्त्यार हैं जो अकलंक का समय विक्रम संवत् 700 (643 ई.) सुनिश्चित करते हैं, पर दूसरा पक्ष 'शकाब्दीय' शब्द को महत्व देता है, अतः यह पक्ष अकलंक का समय शक संवत् 700 (778 ई.) मानता हैं। इसके पक्षधर श्री डॉ. के.वी. पाठकजी हैं । डॉ. पाठक मल्लिषेण प्रशस्ति के निम्न श्लोक के आधार पर अकलंक का समय निश्चित करते हैं - , राजन् साहसतुंग सन्ति वहवः श्वेतातपत्राः नृपाः, किन्तु त्वत्सद्दशो विजयिनः त्यागोन्नताः दुर्लभाः। तद्वत्सन्ति बुधाः न सन्ति कवयो वादीश्वरा वाग्मिनो, नानाशास्त्र विचार चातुरधियः काले कलौ मद्विधा॥21॥ राजन् सर्वारिदर्प प्रविदलन पटुस्त्वं यथात्र प्रसिद्ध, स्तद्वत्ख्यातोऽहमस्यांभुवि निखल मदोत्पाटनः पण्डितानाम्। नो चेदेषोऽयहमेते तव सदसि सदा सन्ति सन्तो महानतो, ववतुं यस्यास्ति शक्तिः सवदतु विदिताशेष शास्त्रो यदि स्यात्॥22॥ डॉ. पाठक का मन्तव्य है कि अकलंक राष्ट्रकूट वंशीय राजा दन्तिदुर्ग (साहसतुंग) के या कृष्णराज प्रथम के समकालीन थे। इस पक्ष के समर्थक स्व. श्री डॉ. आर.जी. भाण्डारकर, स्व. डॉ. सतीशचंद विद्याभूषण तथा स्व. पण्डित नाथूरामजी प्रेमी रहे हैं, इनकी युक्तियाँ हैं - पहली पुन्नाटवंशी जिनसेन के हरिवंश पुराण में अकलंक का उल्लेख होना, दूसरी अकलंक द्वारा धर्मकीर्ति नामक बौद्ध विद्वान का खंडन करना. तीसरी प्रभाचंद के कथाकोश में अकलंक का शुभतुंग के मंत्री का पुत्रोल्लेख होना। डॉ. श्रीकृष्ण शास्त्री और जुगलकिशोरजी मुख्यार के पक्ष का समर्थन डॉ. ए.एन. उपाध्ये तथा पं. कैलाशचन्द्रजी शास्त्री आदि ने किया है। इनकी युक्तियाँ हैं - वीरसेन की धवला टीका में राजवार्तिक का उल्लेख होना, दूसरी हरिभद्र द्वारा 'अकलंक न्याय' शब्द का प्रयोग करना, तीसरी सिद्धसेन गणि का सिद्धिविनिश्चय वाला उल्लेख तथा जिनदास गणि महत्तर द्वारा 'निशीय चूर्णि' में सिद्धिविनिश्चय का दर्शन प्रभावक शास्त्र के रूप में लिखा जाना आदि-आदि प्रमाण
SR No.524767
Book TitleJain Vidya 20 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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