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________________ जैनविद्या - 20-21 ऐसा प्रतीत होता है कि लघुहव्व और पुरुषोत्तम एक ही व्यक्ति हैं। कर्नाटक में पिता के लिए अव्व या अप्प शब्द प्रयुक्त होता है। चूंकि श्री अकलंक के पिताश्री एक ताल्लुकेदार होकर भी विशिष्ट राजमान्य श्रेष्ठपुरुष तो थे ही, अतः उन्हें नृपति शब्द का संबोधन सम्मान-सूचक तो है ही। अब लघुहव्व और लघुअव्व की समस्या आती है सो उच्चारण की विविधता एवं प्रतिलेखन के वैचित्र्य के कारण 'अ' 'ह' में परिवर्तित हो गया और लघुअव्व, लघुहव्व में प्रचलित हो गया। इस प्रकार श्री अकलंकदेव के पिताश्री का असली नाम पुरुषोत्तम था पर प्रचलित नाम 'लघुहव्व' रहा। श्री अकलंकदेव की जन्मभूमि मान्यखेट के आस-पास ही रही होगी, क्योंकि मान्यखेट को राजधानी के रूप में प्रतिष्ठित करनेवाले महाराज अमोघवर्ष थे। राष्ट्रकूट वंशीय महाराज इन्द्रराज द्वितीय और कृष्णराज प्रथम दोनों भाई-भाई थे। इन्द्रराज द्वितीय का पुत्र दन्तिदुर्ग पिता की मृत्यु के पश्चात् राज्य का उत्तराधिकारी बना। संभव है दन्तिदुर्ग अपने चाचा कृष्णराज प्रथम को अव्व' शब्द से संबोधित करता हो । कर्नाटक की प्रथा के अनुसार 'अव्व' पिता या चाचा का बोधक है, अत: यह सामान्य सी बात है कि राजा जिसे 'अव्व' कहे प्रजाजन उसे वैसा ही संबोधित करने लगेंगे। कृष्णराज प्रथम का अपर नाम शुभतुंग था जो दन्तिदुर्ग की अल्पवय में ही मृत्यु हो जाने के कारण उसके राज्य सिंहासन पर विराजमान हुआ। उसकी प्रशंसा में लिखा है - श्रीकृष्ण राजस्य शुभतुंग तुरग प्रवृद्धरेण्वर्ध रुद्ध रविकिरणम् कृष्णराज (शुभतुंग) बड़ा प्रतापी राजा था। उसने कांची, केरल, चोल आदि राज्यों को पराजित कर अपने अधीन कर लिया था। यथा कांचीश केरल नराधिक चोल पाण्डेय श्रीहर्षवज्रट विभेद विधानदक्षं। कर्णाटकं बलम नंत यजेयरथ्यैः भृत्यैः कियदिरपि यः सहसा जिगाय॥ दन्तिदुर्ग का अपर नाम साहसतुंग भी प्रचलित था। वह अपने चाचा कृष्णराज (शुभतुंग) को ‘लघु अव्व' संबोधन से संबोधित करता था। तो श्री पुरुषोत्तम (अकलंक के पिताश्री) कृष्णराज (शुभतुंग) के पहले से ही लघु सहकारी रहे हैं, अत: दन्तिदुर्ग जैसे कृष्णराज को लघु अव्व कहा करते थे उसी तरह पुरुषोत्तम भी लघुअव्व नाम से प्रसिद्ध हो गये। दन्तिदुर्ग की प्रशस्ति वाचन करते हुए श्री मल्लिषेणजी लिखते हैंतत्रान्वयेऽप्यभवदेकपतिः पृथिव्याम्, श्री दन्तिदुर्ग इति दुर्धर बाहुवीर्यो। चालुक्य सिन्धुमथनोद्भव राजलक्ष्मीम्, यो सबभार चिरमात्म कुलैक कान्ताम्॥ तस्मिन् साहसतुंग नाम्निनृपतौ स्वसुन्दरी प्रार्थितै, यस्येतदात्मनोऽनन्य सामान्य निरवद्य विद्या विभवोपवर्णनमाकर्ण्यते॥ उपर्युक्त मल्लिषेण प्रशस्ति से स्पष्ट विदित होता है कि दन्तिदुर्ग बड़ा पराक्रमी था, उसका अपर नाम साहसतुंग था। उसने चालुक्यों की राजलक्ष्मी को अपनी कान्ता के समान धारण किया था।
SR No.524767
Book TitleJain Vidya 20 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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