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जैनविद्या - 20-21
न्यायविनिश्चय की कारिका संख्या 386 में प्रयुक्त 'विस्रव्धैरकलंक रत्न निचयो न्यायो' तथा कारिका संख्या 480 में 'आमव्याद कलक भगफलम्' पद प्रयोग से न्यायविनिश्चय का कर्तृत्व श्री अकलंकदेव द्वारा सुनिश्चित होता है। श्री विद्यानंद स्वामी द्वारा आप्तपरीक्षा में, अनन्तवीर्याचार्य द्वारा सिद्धिविनिश्चय टीका में, तथा श्री वादिराज सूरि द्वारा 'न्यायविनिश्चय विवरण' में 'तदुक्तम कलंक देवै' कहकर उद्धृत की गई कारिका संख्या 51 से इसका सबल समर्थन होता है। न्यायदीपिका' के कर्ता आचार्य धर्मभूषण द्वारा 'तदुक्तं भगवद्भिरकलंकदेवैः न्यायविनिश्चये' लिखने से न्यायविनिश्चय की तीसरी कारिका से इसका कर्तृत्व श्री अकलंकदेव द्वारा सुनिश्चित होता है । 'प्रमाण संग्रह' की कारिका संख्या 9 में उल्लिखित 'अकलंक महीय साम्' पद प्रमाणसंग्रह का कर्तृत्व श्री अकलंकदेव द्वारा असंदिग्ध रूप से प्रमाणित करता है। 'तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक' में श्री विद्यानंद स्वामी द्वारा उल्लिखित वाक्य 'अकलंकैरम्य धायी यः', स्वरूप दूसरी कारिका के उद्धरण से तथा श्री वादिराज सूरि द्वारा 'न्यायविनिश्चय विवरण' में 'तथा चात्र देवस्य वचनम्' लिखकर उद्धृत किए गये इसके 'विविधानुविवादनस्य' वाक्य से इसके कर्तृत्व अकलंकदेव हैं - की प्रामाणिकता सिद्ध होती है।
उपर्युक्त विवरणों से श्री अकलंक के कृतित्व की एक संक्षिप्त-सी झलक मिल जाती है, उनके ग्रंथों का विवेचन आगे करेंगे। श्री अकलंकदेव के व्यक्तित्व एवं जीवन-परिचय के कोई स्पष्ट सुनिश्चित साधन तो हैं नहीं, पर कुछ शिलालेखों तथा कुछ ग्रंथ प्रशस्तियों के आधार पर उनका समय सन् 720 से 780 ई. तक सुनिश्चित होता है । इनके पिताश्री पुरुषोत्तमजी मान्यखेट के राजा शुभतुंग के मंत्री थे। इनके छोटे भाई का नाम नि:कलंक था जो बड़ी विचक्षण प्रतिभा का धनी था, दो बार सुनने पर ही उसे तथ्य वस्तु याद हो जाती थी पर धार्मिक विद्वेष के कारण उसे अकाल काल-कवलित होना पड़ा जिसका विस्तृत विवेचन आगे करेंगे। 'राजवली कथे' नामक ग्रंथ में अकलंकदेव को कांची के ब्राह्मण पंडित श्री जिनदास का पुत्र बताया है। इनकी मातुश्री का नाम जिनमती था तथा गुरु का नाम रविगुप्त था। जब गुरुजी के पास पढ़ने गये तो आष्टाह्निका पर्व चल रहा था अतः गुरुजी ने पर्व के दिनों में ब्रह्मचर्यव्रत धारण करने को कहा तो सहर्ष तैयार हो गये और इस असिधारा व्रत का उन्होंने आजीवन निष्ठापूर्वक पालन किया। युवावस्था में जब विवाह की चर्चा आई तो गुरुजी द्वारा प्रदत्त ब्रह्मचर्यव्रत का उल्लेख कर विवाहप्रकरण को समाप्त कर दिया, उन्हें समझाया गया कि वह तो उन्हीं पर्व के दिनों तक सीमित व्रत था पर वे अपनी बात पर अडिग रहे और जैनशासन की धर्मध्वजा को अबाधरूप से फहराते रहे।
राजवार्तिक के प्रथम अध्याय के अंत में उल्लिखित निम्न श्लोक से श्री अकलंक राजा लघुहव्व के वरतनय - ज्येष्ठ पुत्र थे। यथा
जीयाच्चिरम कलंक ब्रह्मा लघुहव्व नृपति वर तनयः। अनवरत निखिल जन नुत विद्यः प्रशस्त जन हृद्यः॥