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जैनविद्या - 20-21
स्याद्वादाप्रतिम प्रभूत किरणैः व्याप्तं जगत् सर्वतः, स श्रीमानकलंक भानुरसमो जीयाज्जिनेन्द्र प्रभु तर्कवल्लभो देवः सः जयत्यकलंकधीः।
जगद् द्रव्यमुषो येन दण्डिताः शाक्य दस्यवः। तत्कालीन घटवाद, स्फोटवाद, हेतुवाद, सर्वज्ञ विरोधिता, ईश्वर-कर्तृत्व आदि दार्शनिक वितण्डावादों का स्वामी अकलंकदेव ने जिस प्रामाणिकता एवं दुरुह ग्रंथों की रचना द्वारा सुदृढ़ उत्तर दिया था और तर्कसहित खण्डन किया था, वह दार्शनिक इतिहास की बहुमूल्य धरोहर है। आजतक अकलंकदेव जैसा तार्किक वाग्मी अनेक शास्त्रार्थों का विजेता, मनीषी भारतीय दार्शनिक क्षितिज पर दिखाई नहीं देता है। उनके ग्रंथ, उनके तर्क एवं उनके प्रमाण इतने अधिक सबल और सुदृढ़ हैं कि उनके आगे और सब हीन और हेय प्रतीत होते हैं। उनकी प्रामाणिकता इतनी अधिक सुदृढ़ है कि उनके परवर्ती अनेक धुरंधर विद्वानों ने, मनीषियों ने तथा आचार्यों ने उनका आदरपूर्वक पुण्य स्मरण करते हुए उल्लेख किया है। वे स्वामी समन्तभद्र की भांति स्याद्वाद पंचानन के नाम से विख्यात थे। यथा
इत्थं समस्त यतवादि करीन्द्र दर्प मुन्मूलयन्न मल मानद्दढ़ प्रहारैः
स्याद्वाद केसर सटा शत तीव्र मूर्तिः पंचाननो जयत्यकलंकदेवः॥ उन्होंने बौद्ध दर्शन का गहन, गंभीर अध्ययन किया था इसीलिए वे जैनदर्शन के अकाट्य प्रमाणों से उनकी युक्तियों का खण्डन कर सके तथा शास्त्रार्थ में उन्हें पराजित कर सके। 'दण्डिताः शाक्य दस्यवः' जैसे वाक्य इस बात के सार्थक प्रमाण हैं । राजा हिमशीतल की राजसभा में परदे के पीछे घड़े में बैठी तारादेवी को शास्त्रार्थ में पराजित करने की घटना इतिहास प्रसिद्ध है।
श्री अकलंकदेव का प्रामाणिक विशद जीवन-परिचय उनके ग्रंथों में कहीं नहीं मिलता है पर उनके ग्रंथों में जगह-जगह सन्दर्भानुसार 'अकलंक' शब्द का प्रयोग उनके उस ग्रंथ का कर्तृत्व घोषित करता है यथा स्वकर्तृत्व के प्रतिवादक वाक्य 'वृत्तिरियं सकलवादि चक्र चक्रवर्तिनो भगवतो भट्टाकलंक देवस्य इति' यह वाक्य लघीयस्त्रय के प्रमाण प्रवेश के अंत में लिखित पुण्यिका वाक्य है। कारिका संख्या 50 में प्रयुक्त 'प्रेक्षवानकलंक मेति' पद से तथा कारिका संख्या 78 में प्रयुक्त भगवदकलंकानाम' इत्यादि पदों से लघीयस्त्रय' की कर्तृता श्री अकलंकदेव द्वारा ही हुई है ऐसा सुनिश्चित होता है। इनके अतिरिक्त अनन्तवीर्याचार्यकृत 'सिद्धिविनिश्चय टीका' में उल्लिखित यह वाक्य 'त दुक्तं लघीयस्त्रये प्रमाण फलयो:' तथा श्री विद्यानंद स्वामी द्वारा प्रमाण परीक्षा एवं अष्ट सहस्री में तदुक्तमकलंकदेवैः' द्वारा लघीयस्त्रय की तीसरी कारिका से तथा तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक में अत्रकलंक देवाः प्राहुः' कहकर उद्धृत लघीयस्त्रय की दशमी कारिका से लघीयस्त्रय का कर्तृत्व श्री अकलंकदेव द्वारा सुनिश्चित होता ही है। श्री मलयगिरि 'आवश्यक नियुक्ति' की टीका में 'तथा चाहाक लंक देवैः' लिखकर लघीयस्त्रय की कर्तृता श्री अकलंकदेव द्वारा सुनिश्चित करते हैं।