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जैनविद्या - 20-21
अप्रेल - 1999-2000
स्वामी भट्टाकलंकदेव - व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
- श्री कुन्दनलाल जैन
स्वामी समन्तभद्राचार्य के बाद भारतीय दार्शनिक पटल पर कोई भी ऐसा विख्यात दार्शनिक विद्वान् नहीं दिखाई देता है जो श्रीमद् भट्टाकलंक देव से तुलना में सबल प्रतीत होता हो। वे तर्कभूवल्लभ, महर्धिक, समस्तवादिकरीन्द्रदर्पोन्मूलक, अकलंकधी, बौद्ध बुद्धि वैधव्य दीक्षा गुरु, स्याद्वाद के सरसटा, शततीव्रमूर्ति पंचानन, अशेषकुतर्क विभ्रममति, निर्मूलोन्मूलक, अकलंक भानु, अचिन्त्य महिमा, सकल तार्किक चक्रचूड़ामणि, मरीचिमेचकित नख किरण, आदि अनेक विरुदावलियों से विभूषित थे - ऐसा शिला लेखों तथा परवर्ती ग्रंथ-प्रशस्तियों से विदित होता है।
जिस तरह स्वामी समन्तभद्र जैसे दिग्गज मनीषी ने दूसरी शती (140 ई. के लगभग) में जैन-शासन की भेरी निर्भीक भाव से प्रताड़ित की थी उसी तरह आठवीं सदी (720-780 ई.) के अंत में स्वामी अकलंकदेव ने डंके की चोट से जैनशासन को तत्कालीन सभी दर्शनों विशेषतया बौद्ध दर्शन से टक्कर लेकर शीर्षस्थ स्थान दिलाया था और अपना वर्चस्व स्थापित किया था। यथा -
इत्थं समस्त मतवादिकरीन्द्र दर्पमुन्मूलयत्रमल मान दृढ़प्रहारैः। स्याद्वाद के सरसटा शततीव्रमूर्तिः पंचाननो जयत्यकलंक देवः॥'
ये ना शेष कुतर्क विभ्रमतमो निर्मूलमुन्मीलितम्, स्फारागाध कुनीति सार्थ सरितो निःशेषतः शोषिताः।