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________________ - जैनविद्या 20-21 है, उसमें सजीवता, रक्त का संचार आदि विशेषताएँ होती हैं लेकिन हाथ अपने इस विशिष्ट स्वरूप में अस्तित्व शरीर के अंग के रूप में ही रखता है । शरीर से पृथक् हो जाने पर उसका इस विशिष्ट स्वरूप से अस्तित्व समाप्त हो जाता है। इस प्रकार हाथ, पैर आदि विभिन्न अंगों के शरीर के एक अंग रूप में ही एक विशिष्ट स्वरूप में अवस्थित होने के कारण इन अंगों ज्ञानपूर्वक शरीर ही आंशिक रूप से ज्ञात होता है तथा शरीर के समस्त अंगों के ज्ञात होने पर शरीर ही सम्पूर्णत: ज्ञात कहलाता है । 111 क्योंकि एक अवयव अपने विशिष्ट स्वरूप को अवयवी के एक अंग के रूप में ही अर्थात् सम्पूर्ण अवयवों से सम्बन्धित और प्रभावित होकर ही प्राप्त करता है इसलिये न केवल अवयवों ज्ञान में वृद्धि के साथ ही साथ अवयवी के ज्ञान में वृद्धि होती जाती है बल्कि अवयवी के ज्ञान में हो रहा विकास उसके विभिन्न अवयवों के ज्ञान को भी अधिक परिष्कृत और समृद्ध करता है । अवयवी के प्रति अब तक अर्जित जानकारी अनेक नयी जिज्ञासाओं को जन्म देती है जिसके समाधान हेतु किये गये प्रयत्नपूर्वक अर्जित नवीन विशेषताओं का ज्ञान सम्पूर्ण अवयवी ज्ञान को अधिक स्पष्टता प्रदान करता है। जैसे शरीर के हाथ, पैर आदि विभिन्न अवयवों का निर्माण एक निश्चित व्यवस्था के अनुसार ही क्यों होता है, विभिन्न व्यक्तियों का रंग, स्वभाव आदि में अन्तर क्यों पाया जाता है, दुनिया में कोई भी दो व्यक्ति पूर्णतया समान क्यों नहीं होते, आदि प्रश्नों के समाधानार्थ खोजे गये शरीर के अवयव जीन्स न केवल शरीर के सम्बन्ध में हमारी जानकारी में वृद्धि करते हैं बल्कि ये शरीर और उसके अवयवों के सम्बन्ध में हमारे पूर्वाजित ज्ञान को अधिक स्पष्टता और वैशिष्ट्य भी प्रदान करते हैं । यह ज्ञेय पदार्थ के अवयव - अवयव्यात्मक स्वरूप को सिद्ध करता है । - इन्द्रिय प्रत्यक्ष द्वारा एक स्थूल वस्तु अवयव अवयव्यात्मक स्वरूप में ही ज्ञात होती है लेकिन जब हम उसे भाषा के माध्यम से समझना चाहते हैं तो यह अवयव और अवयवी को परस्पर अलग करके एक-एक वाक्य में अवयवी के व एक-एक अवयव के पृथक्-पृथक् और क्रमिक वर्णनपूर्वक ही सम्भव हो पाता है। भाषा में यह स्वरूप हममें अनेक बार यह भ्रम पैदा कर देता है कि एक अवयवी अनेक अवयवों का समूह मात्र है अथवा यह कि अवयव आदि धर्म स्वतन्त्र तथा परस्पर निरपेक्ष सत्ताएँ हैं तथा अवयवी आदि धर्मी उनसे भिन्न सत्ता है। इसलिये जैन आचार्यों के अनुसार भाषा द्वारा वस्तु को निर्भ्रान्त तथा यथावस्थित स्वरूप में जानने के लिये वर्णित विषय को स्याद्वादनय संस्कृत रूप में ग्रहण करना आवश्यक है । 31 आज भौतिक पदार्थों के क्षेत्र में बहुत तेजी से विकास हो रहा है। एक वस्तु के प्रति अब तक अर्जित जानकारी उस वस्तु का अपूर्ण ज्ञान होने के कारण उसके प्रति अनेक नवीन जिज्ञासाएँ उत्पन्न कर देती है, जिनके समाधान हेतु किये गये अन्वेषणों से वस्तु की अनेक नवीन विशेषताएँ ज्ञात होती हैं। जैसे-जैसे मानवीय ज्ञान में वृद्धि होती जाती है मानव की जिज्ञासाएँ भी बढ़ती जाती हैं जो ज्ञेय पदार्थ के द्रव्य - पर्यायात्मक, एकानेकात्मक, भेदाभेदात्मक स्वरूप को सिद्ध करती हैं।
SR No.524767
Book TitleJain Vidya 20 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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