SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 110 जैनविद्या - 20-21 जिस प्रकार हमें अनेक गुणों के ज्ञानपूर्वक एक द्रव्य का और द्रव्य के ज्ञानपूर्वक उसके एक गुण के विशिष्ट स्वरूप का ज्ञान होता है उसी प्रकार हम अनेक अवयवों के ज्ञानपूर्वक एक अवयवी को जानते हैं तथा जैसे-जैसे अवयवी की समझ में वृद्धि होती जाती है वैसे-वैसे उसके अवयवों की समझ भी अधिक विकसित और परिष्कृत होती जाती है। जो एक स्थूल वस्तु के अवयव-अवयव्यात्मक स्वरूप को सिद्ध करती है। बौद्ध कहते हैं कि अनेक अवयव ही वास्तविक और स्वतंत्र सत्ताएँ हैं। उन अनेक अवयवों का एक अवयवीरूप में होनेवाला ज्ञान अनादि वासनाजनित मानसिक कल्पनामात्र होने के कारण मिथ्या है। जिस प्रकार दूर से देखने पर विरल केशों में घनाकारता का भ्रामक प्रतिभास होता है उसी प्रकार हम परस्पर स्वतंत्र अनेक परमाणुओं में निकटता और सादृश्य के कारण एकत्व का आरोप करके उन्हें एक अवयवी घट, वस्त्र आदि रूप में पहचानते हैं । वस्तुत: घट, वस्त्र आदि स्थूल पदार्थ वास्तविक पदार्थ न होकर अनेक परमाणुओं के समूह पर आरोपित एक नाममात्र है और इसलिये इन्हें जाननेवाला ज्ञान मिथ्या है । वादिराज मुनिराज बौद्धों के इस मत की आलोचना करते हुए कहते हैं कि बौद्ध स्थूल वस्तु के खण्डन के लिए प्रस्तुत किये गये अनुमान में विरल केशों में भ्रामक घनाकारता का दृष्टान्त देते हैं । केशों में घनाकारता का ज्ञान तभी भ्रामक हो सकता है जबकि उनकी विरलता का ज्ञान यथार्थ हो तथा उनकी विरलता का ज्ञान तभी यथार्थ हो सकता है जबकि विरलता के अधिष्ठान केशों का ज्ञान यथार्थ हो जो स्वयं स्थूल वस्तुरूप है। यदि केश-ज्ञान यथार्थ है तो स्थूल वस्तु का खण्डन नहीं किया जा सकता। यदि वह मिथ्या है तो उसके द्वारा कुछ सिद्ध नहीं किया जा सकता। निश्चित रूप से एक अवयवी अपने अवयवों के अतिरिक्त कुछ नहीं है। लेकिन वह अपने अवयवों का समूहमात्र न होकर उनमें व्याप्त एक अखण्ड सत्ता है। संयोग-सम्बन्ध से सम्बन्धित अनेक अवयव परस्पर एक-दूसरे से सम्बन्धित और प्रभावित होकर एक अवयवीरूपता को प्राप्त करते हैं । इस अवस्था में वे एक ऐसे विशिष्ट स्वरूप को प्राप्त करते हैं जिसका उनमें अन्यथा अभाव होता है। उदाहरण के लिए विभिन्न तन्तुओं में ओढ़ने-बिछानेरूप कार्य को करने की सामर्थ्य का अभाव होता है लेकिन वे ही तन्तु जब परस्पर आतान-वितानरूप से संयुक्त होकर एक वस्त्ररूप विशिष्ट स्वरूप को प्राप्त करते हैं तो उनमें यह नवीन सामर्थ्य उत्पन्न हो जाती है। इस प्रकार वस्त्र के अनेक तन्तुओं के समूह पर आरोपित सत्ता एक नाममात्र न होकर वास्तविक सत्ता होने के कारण विशिष्टरूप से संयुक्त अनेक तन्तुओं के ज्ञानपूर्वक होनेवाला एक वस्त्र का ज्ञान यथार्थ ज्ञान है।30 ___ एक ज्ञेय पदार्थ के अवयव-अवयव्यात्मक स्वरूप को स्पष्टतः समझने के लिए हम शरीर के दृष्टान्त पर विचार करें। हाथ, पैर, सिर, हृदय आदि अनेक अंग एक विशेष प्रकार से संयुक्त होकर एक जटिल संघटन शरीररूपता को प्राप्त करते हैं । इस संघटन के सभी अंगों का अपनाअपना निश्चित और विशिष्ट स्वरूप होता है, अपनी-अपनी शक्तियाँ और उपयोगिताएँ होती हैं, लेकिन ये अपने इस विशिष्ट स्वरूप को शरीर के एक अंग के रूप में ही अर्थात् शरीर के अन्य अंगों से सम्बन्धित और प्रभावित होकर ही प्राप्त करते हैं तथा शरीर से अलग हो जाने पर इनका इस विशिष्ट स्वरूप में अस्तित्व समाप्त हो जाता है । उदाहरण के लिए हाथ का अपना एक निश्चित आकार होता है । वह वस्तुओं को उठाने, रखने आदि कार्यों को करने की क्षमता से युक्त होता
SR No.524767
Book TitleJain Vidya 20 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy