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________________ 108 जैनविद्या - 20-21 भावरूप है। 123 ये पद यह प्रतिपादित करते हैं कि चैतन्यतत्व पूर्णतया एकस्वभावी तत्व - ज्ञानस्वभावी तत्व है; लेकिन यह ज्ञानस्वभावी तत्व शुद्ध निर्विशेष ज्ञानस्वरूप न होकर विशिष्ट प्रकार की सत्ता है तथा उसके विशिष्ट स्वरूप के नियामक उसके अनेक धर्म हैं जो ज्ञान और भाषा में पृथक् किये जाने योग्य होने पर भी तत्त्वतः अपृथक् हैं । इसलिये अमृतचन्द्राचार्य के अनुसार "इस साधक भाव का अनुभव करने वाले प्रत्यगात्मा अनन्तधर्मात्मक तत्व को ही देखते हैं। 24 अन्यत्र वे कहते हैं निश्चयनय से अनन्तधर्मात्मक एक धर्मी को जिसने नहीं जाना ऐसे शिष्यों के लिए भाषा द्वारा धर्म को धर्मी से पृथक् करते हुए आचार्य कहते हैं कि यद्यपि धर्म और धर्मी का स्वभाव से अभेद है तो भी नाम से भेद होने के कारण व्यवहारमात्र से ज्ञानी के दर्शन है, ज्ञान है, चारित्र है। परन्तु परमार्थ से देखा जाय तो एक द्रव्य द्वारा पीये गये अनन्तपर्यायरूपों के किंचित मिले हुए अभेद स्वभाव वस्तु को अनुभव करनेवाली पण्डित पुरुषों की दृष्टि में दर्शन भी नहीं, ज्ञान भी नहीं, चारित्र भी नहीं, शुद्ध एक ज्ञायक भाव ही है।'5""वस्तुतः दर्शन, ज्ञान और चारित्र तीन अलग तत्व न होकर एक ज्ञान ही हैं । जीवादि पदार्थों के यथार्थ श्रद्धान (अनुभूति, प्रतीति) रूप से ज्ञान का परिणमन सम्यग्दर्शन है। जीवादि पदार्थों के ज्ञान (निश्चय) स्वभाव से ज्ञान का होना ज्ञान है तथा रागादिरहित स्वभाव से ज्ञान का होना सम्यक्चारित्र है। 126 __एक ज्ञानमय तत्व का अस्तित्व उसके अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनेक स्वभावमय होने पर ही सम्भव है। ये सभी स्वभाव ज्ञान के विशेषण होने तथा परस्पर संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन से भिन्न-भिन्न होने पर भी तादात्म्य सम्बन्ध से सम्बन्धित होने के कारण एक ज्ञान ही है। (जिस प्रकार यह सत्ता पूर्णतया एकस्वभावी-ज्ञानस्वभावी है। उसी प्रकार यह पूर्णतया एकस्वभावी दर्शनस्वभावी या वीर्यस्वभावी आदि भी है। इन अनेक स्वभावों की एक ज्ञानरूपता होने पर भी इनकी स्वभावगत अनेकता वास्तविक है तथा इनमें से किसी भी गुण के सद्भाव-अभाव में इस सत्ता का सम्पूर्ण स्वरूप बदल जाता है। ज्ञान के वीर्यात्मक होने पर वह परिणामी-नित्य, सामान्य-विशेषात्मक, कर्ता, उपयोगमय, सविषयक चेतनारूप आत्मा होगा। लेकिन यदि उसे वीर्य रहित स्वीकार किया जाए तो वह निष्क्रिय होने के कारण कटस्थ-नित्य. सदैव एकरूप. अकर्ता. साक्षी-भावमय निर्विषयक चेतना होगा। ऐसा तत्व सार्वभौमिक होने पर अद्वैत वेदान्त द्वारा मान्य ब्रह्म और वैयक्तिक होने पर सांख्य दर्शन द्वारा स्वीकृत पुरुष होगा। ज्ञानमय तत्व के इन अनेक स्वभावमय विशिष्ट स्वरूप को बौद्धिक कल्पनाजनित शब्दमात्र नहीं कहा जा सकता क्योंकि इन्हें वास्तविक स्वीकार करके ही विभिन्न दार्शनिक अन्य दार्शनिकों द्वारा स्वीकृत सत्ता के स्वरूप का निषेध और स्वयं द्वारा मान्य स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं। साथ ही इसके विशेष प्रकार के स्वरूप की स्वीकति चेतना के वर्तमान स्वरूप और उनके चरम लक्ष्य को भी प्रभावित करती है। एक उपयोगात्मक चेतना का आराधक ज्ञानार्जन के प्रति सदैव उत्साही होता है जबकि साक्षीभाव रूप चेतना का आराधक उसके प्रति उदासीन हो जाता है। प्रथम का आदर्श सर्वज्ञता तथा द्वितीय का चरम लक्ष्य निर्विषयक चेतना होती है । इस प्रकार एक सत्ता शुद्ध सत्ता मात्र न होकर विशिष्ट प्रकार की सत्ता है तथा उसके वैशिष्ट्य के नियामक सत्तापेक्षया परस्पर अपृथक् अनेक वास्तविक स्वभाव हैं।
SR No.524767
Book TitleJain Vidya 20 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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