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________________ जैन विद्या 1 20-21 107 बौद्ध कहते हैं कि एक निरंश सत्ता में सत्व, द्रव्यत्व आदि अनेक धर्मरूप भेद वास्तविक न होकर मात्र शाब्दिक और बुद्धिजनित होने के कारण अनादि वासनाजनित मानसिक कल्पनामात्र है। वस्तुतः पदार्थ पूर्णतया एकस्वभावी ही होता है तथा वह प्रत्यक्ष द्वारा सम्पूर्णत: ही ज्ञात होता है।2° उस सम्पूर्णत: जान लिये गये पदार्थ में किसी प्रकार भ्रम उत्पन्न हो जाने पर उसके निवारण के लिए अनुमान की प्रवृत्ति होती है जिसमें पदार्थ के प्रति धर्म-धर्मीरूप भेद का आरोप करके उसका अनेक रूपों में निश्चय किया जाता है । 21 प्रत्यक्ष द्वारा पदार्थ की नीलरूपता का निश्चय हो जाने पर भी उसकी अनित्यता के प्रति भ्रम उत्पन्न हो जाता है जिसके निराकरण के लिए नील के अस्तित्व धर्म को स्वभाव हेतु बनाकर उसकी अनित्यता को और अनित्यता को स्वभाव हेतु बनाकर उसकी कृतकता को सिद्ध किया जाता है। लेकिन विभिन्न ज्ञानों के द्वारा पदार्थ के सत्व, अनित्यत्व, कृतकता आदि की सिद्धि का उद्देश्य पदार्थ की वस्तुभूत अनेकस्वभावता को सिद्ध न करके उसे मात्र असत्, नित्य, कृतक आदि विजातीय पदार्थों से पृथक् कर उसके प्रति अज्ञान की निवृत्ति करना है । 22 इस धर्म - धर्मी भाव से युक्त सविकल्पक ज्ञान में पदार्थ के यथार्थ एकस्वभावी स्वरूप को जानने की सामर्थ्य नहीं है । उसका ज्ञान तो इन्द्रियार्थ सन्निष्कर्ष के प्रथम क्षण और योगि प्रत्यक्ष की अवस्था में होनेवाले निर्विकल्पक प्रत्यक्ष द्वारा ही होता है। बौद्धों के समान ही अद्वैत वेदान्ती भी कहते हैं कि सत्ता पूर्णतया अखण्ड और एकस्वभावी ही होती है तथा उसके इस यथार्थ स्वरूप का ज्ञान समाधि की अवस्था में होनेवाले निर्विकल्पक प्रत्यक्ष द्वारा होता है। सविकल्पक ज्ञान उस अखण्ड सत्ता में धर्म- धर्मी भेद का आरोप करके उसे अनेक रूपों में जानता है तथा उसमें इन भेदों से परे सत्ता के भूखण्ड स्वरूप को ग्रहण करने की सामर्थ्य नहीं है, इसलिये यह ज्ञान मिथ्या है। इसका महत्व सिर्फ इतना है कि इसमें सत्ता के स्वरूप- बोध की सामर्थ्य का अभाव होने पर भी उसके प्रति अस्वरूप की निवृत्ति की सामर्थ्य है । सविकल्पक ज्ञान नेति नेति अर्थात् वस्तु यह नहीं है, यह नहीं है रूप से वस्तु के प्रति अज्ञान को समाप्त कर देता है। इसके पश्चात् ही सत्ता के अद्वैत स्वरूप की साक्षात्कारात्मक निर्विकल्पक ज्ञानरूप समाधि की अवस्था की प्राप्ति सम्भव है। इस प्रकार बौद्ध और अद्वैत वेदान्त दोनों के अनुसार वस्तु के अनेकान्तात्मक स्वरूप का प्रतिपादक सविकल्पक ज्ञान वस्तु के प्रति अज्ञान निवृत्तिरूप निषेधात्मक कार्य ही करता है तथा वस्तु के निरंश और एकस्वभावी स्वरूप का ज्ञान तो समाधि की अवस्था में होनेवाले निर्विकल्पक ज्ञान द्वारा ही संभव है। जैन दार्शनिक बौद्ध और अद्वैत वेदान्त के इस मत से सहमत हैं कि सत्ता सम्पूर्णत: एकस्वभावी ही होती है तथा उसमें अनेक धर्मरूप भेद भाषाजनित हैं । आत्मा सम्पूर्णतः एकस्वभावी सत्ता ज्ञानस्वभावी सत्ता है तथा वह ज्ञान के अतिरिक्त कुछ नहीं है। ध्यान का विषय स्वयं का ऐसा शुद्ध ज्ञायक स्वरूप ही होता है। आचार्य कुन्दकुन्द जीव के सर्वभेदरहित शुद्ध ज्ञायक भाव को प्रतिपादित करते हुए कहते हैं, "जो यह ज्ञायक भाव है वह न तो प्रमत्त है और न अप्रमत्त बल्कि यह शुद्ध ज्ञायक स्वरूप ही है; व्यवहारनय से ही ज्ञानी के चारित्र है, ज्ञान है; लेकिन निश्चयनय से ज्ञानी न तो चारित्र है, न दर्शन है, न ज्ञान है; बल्कि वह शुद्ध ज्ञा
SR No.524767
Book TitleJain Vidya 20 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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