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________________ 104 जैनविद्या - 20-21 की अपेक्षा अज्ञात भी रहता है। अवगृहीत पदार्थ के इस ज्ञाताज्ञात स्वरूप के ज्ञात होने के कारण ही उसके विशिष्ट स्वरूप के प्रति ईहापूर्वक आवाय, धारणारूप ज्ञान की उत्पत्ति होती है जो न केवल ज्ञेय पदार्थ के अनेक क्षणव्यापी एक अस्तित्व को बल्कि ज्ञान के एकानेकात्मक स्वरूप को भी सिद्ध करती है।' अकलंकदेव का द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु को ज्ञान का विषय कहने से क्या आशय है, यह समझने के लिए हम शब्द प्रमाण के स्वरूप पर विचार करें। भाषा द्वारा एक वस्तु क्रमिक रूप से एक-एक वाक्य द्वारा उसकी एक-एक विशेषता के ज्ञानपूर्वक ज्ञात होती है। वस्तु की एक विशेषता नाम, लक्षण, प्रयोजन आदि की अपेक्षा अन्य सबसे भिन्न और अपने आप में परिपूर्ण होते हुए भी सत्तापेक्षया अपने आप में अपूर्ण होती है। इस अपेक्षा से उसका पूर्ण स्वरूप उसका आश्रयभूत सम्पूर्ण द्रव्य अर्थात् द्रव्य के अन्य समस्त गुण हैं । गुण और गुणी में विद्यमान इस भेदाभेद सम्बन्ध के कारण एक वाक्य द्वारा ज्ञात हो रहे द्रव्य के एक गुण के प्रति अनेक जिज्ञासाएँ उत्पन्न हो जाती हैं। इन जिज्ञासाओं की शान्ति हेतु किये गये प्रयत्न से वस्तु के अनेक नवीन गुणों का ज्ञान होता है, जो वस्तु के ज्ञान में मात्र वृद्धि ही नहीं करता बल्कि वस्तु की पूर्वज्ञात विशेषताओं की समझ को भी और अधिक वैशिष्ट्य और स्पष्टता प्रदान करता हुआ परिष्कृत करता है। आचार्य उमास्वामी कहते हैं - "सत् होना द्रव्य का लक्षण है''10 'सत्' का अर्थ है 'है', 'सद्भाव', अस्तित्वरूपता तथा इस धर्म का प्रयोजन है धर्मी को सद्-स्वरूपता प्रदान करना, उसके सद्भाव या होने का ज्ञान कराना। इसलिये उपर्युक्त वाक्य - "सत् होना द्रव्य का लक्षण है" से यह ज्ञान होता है कि 'द्रव्य है' या जो भी है उसे द्रव्य कहा जाता है । इस लक्षण और प्रयोजन की अपेक्षा अस्तित्व गुण के अपने आप में परिपूर्ण होने पर भी सत्तापेक्षया वह अपने आप में अपूर्ण है और इसलिये उसके प्रति यह जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि सत् होने का अर्थ । क्या है, जो है वह मात्र एक क्षणस्थायी है, शाश्वत है या परिणामी नित्य? इस प्रश्न के उत्तर में आचार्य कहते हैं - जो सत् है वह उत्पादव्ययध्रौव्य युक्त है।" उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तता को द्रव्यत्व गुण कहा जाता है। उपर्युक्त दोनों वाक्य सत्व और द्रव्यत्व में परस्पर विशेष्य-विशेषण भाव को सिद्ध करते हुए 'सत्तात्मक द्रव्य' या 'द्रव्यत्वमय सत्ता' रूप विशिष्ट बुद्धि को उत्पन्न करते हैं जो सत्व और द्रव्यत्व धर्मों के पारस्परिक तादात्म्य सम्बन्धपूर्वक उनकी एक धर्मीरूपता का परिचायक है। इनमें एकल होने पर भी अनेकता विद्यमान है जिसके कारण सत्व के ज्ञात होने पर भी द्रव्यत्व अज्ञात रहता है तथा उसे जानने के लिए अन्य ज्ञान की सहायता लेनी पड़ती है। द्रव्यत्वरूपता भी सत्ता का पूर्ण स्वरूप नहीं होने के कारण उसके प्रति पुनः जिज्ञासा होती है कि यह द्रव्यत्वमयसता सामान्य रूप है, विशेष रूप है या सामान्यविशेषात्मक? इसके उत्तर में शब्द प्रमाण द्वारा उसका सामान्यविशेषात्मक स्वरूप या वस्तुत्व गुण ज्ञात होता है यह द्रव्यत्ववस्तुत्वमय सत्ता प्रमेय है या नहीं, उसके परिमाण में न्यूनाधिकता सम्भव है या नहीं जैसे प्रश्नों के उत्तर में सत्ता के प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व आदि गुण ज्ञात होते हैं । मानवीय ज्ञान की यह सक्रिय और अन्वेषणात्मक, दूसरे शब्दों में उपयोगात्मक, प्रक्रिया अन्तहीन है। जैसे-जैसे मानव के ज्ञान
SR No.524767
Book TitleJain Vidya 20 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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