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________________ 103 जैनविद्या - 20-21 को जानते हैं। ऐसा इसलिये होता है कि एक वस्तु के अनेक गुण, पर्याय, अवयव आदि क्रमशः गुणी, पर्यायी और अवयवी के विभिन्न अंश हैं, धर्म हैं, स्वभाव हैं तथा गुणी अपने अनेक गुण आदि में व्याप्त एक अखण्ड सत्ता है। दूसरे शब्दों में एक द्रव्य के अनेक सहवर्ती स्वभाव उसके विभिन्न गुण हैं। इन अनेक गुणों में नाम, लक्षण, प्रयोजन आदि की अपेक्षा भेद होने पर भी सत्तापेक्षया अभेद हैं । उनका यह पारस्परिक तादात्म्य ही उनकी एक द्रव्यरूपता है । तादात्म्य = तत + आत्म्य अर्थात् ये परस्पर एक-दूसरे की आत्मा या स्वभाव होते हुए, एक दूसरे में अन्तर्व्याप्त होते हुए एक द्रव्यरूपता को प्राप्त कर रहे हैं। इस प्रकार द्रव्य और गुण दो भिन्नभिन्न सत्ता न होकर संज्ञादि की अपेक्षा परस्पर भिन्न होने पर भी एक ही सत्ता है। सत्तापेक्षया द्रव्य और गुण में अभेद होने के कारण न केवल एक द्रव्य का आत्मा या स्वभाव उसके समस्त गुण हैं बल्कि एक गुण का स्वभाव भी उसका आश्रयभूत सम्पूर्ण द्रव्य है। इस प्रकार सत्ता मात्र गुणरूप, मात्र द्रव्यरूप या मात्र परस्पर निरपेक्ष गुण-गुणीरूप न होकर गुणगुण्यात्मक स्वरूप में अवस्थित है। जिस प्रकार संज्ञादि की अपेक्षा परस्पर भिन्न-भिन्न अनेक गुण ही परस्पर तादात्म्य सम्बन्धपूर्वक एक द्रव्यरूपता को प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार संज्ञा आदि की अपेक्षा भिन्न-भिन्न अनेक अवयव परस्पर संयोग सम्बन्धपूर्वक एक अवयवीरूपता को प्राप्त करते हैं। सत्ता के इस एक-अनेकात्मक, भेद-अभेदात्मक स्वरूप के कारण ज्ञान सदैव धर्मधात्मक स्वरूप लिये हुए होता है तथा उसका विषय सदैव द्रव्यपर्यायात्मक, गुणगुण्यात्मक, अवयव-अवयव्यात्मक, पर्यायपर्यायात्मक सत्ता होती है। प्रत्यक्ष अनुमानादि सभी प्रमाणों द्वारा एकानेकात्मक, भेदाभेदात्मक वस्तु ही ज्ञात होती है। बौद्ध कहते हैं कि धर्मधर्मी भाव में युक्त सविकल्पक ज्ञान परमार्थतः सत्य न होकर अनादि वासनाजनित मानसिक कल्पना मात्र है। प्रत्यक्ष मात्र धर्म को ही जानता है। उदाहरण के लिए चाक्षुष प्रत्यक्ष द्वारा मात्र एक गुण-रूप का ही प्रत्यक्ष होता है। उस एक गुण के ज्ञानपूर्वक होनेवाला रूप, रसादि अनेक गुणात्मक द्रव्य घट को ज्ञात कहना यथार्थ ज्ञान न होकर अनादि वासनाजनित कल्पना मात्र है । यथार्थ ज्ञान का विषय एक-अनेक स्वभावी सत्ता न होकर मात्र एक स्वभावी सरल धर्म है । अकलंकदेव इस मत को अस्वीकार करते हुए कहते हैं कि प्रत्यक्ष सदैव सविकल्पक (विशेष-विशेष्य भाव से युक्त) ही होता है तथा उसका विषय द्रव्यपर्यायात्मक, सामान्य-विशेषात्मक वस्तु होती है। प्रत्यक्ष का विषय रूप, रस आदि कोई एक गुण न होकर अनेक गुणात्मक द्रव्य होता है। हम चाक्षुष प्रत्यक्ष द्वारा मात्र एक सरल गुण रूप को न जानकर अस्तित्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, पृथुबुध्नाकार मय रूप को जानते हैं। इन गुणों में स्वभाव-भेद होने पर भी सत्तापेक्षया अभेद होने के कारण ये एक द्रव्य हैं इसलिये इनके ज्ञानपूर्वक एक द्रव्य को ज्ञात कहा जाता है। इन गुणों में पृथुबुध्नाकार वह असाधारण धर्म है जो इस सत्ता को अघट से पृथक् एक ऐसा विशिष्ट स्वरूप प्रदान कर रहा है जिसके होने पर पदार्थ को घट ही कहा जाता है । इसलिये विशेषता के ज्ञानपूर्वक द्रव्य के प्रति घट' इस विशिष्ट बुद्धि की उत्पत्ति होती है। कुछ गुणों के ज्ञानपूर्वक घट को ज्ञात कहने का अर्थ यह नहीं है कि वह सम्पूर्णतः ज्ञात हो गया है। इसके विपरीत घट को ज्ञात अंशों से ही ज्ञात कहा जाता है। तथा वह अपने अज्ञात धर्मों
SR No.524767
Book TitleJain Vidya 20 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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