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________________ जैनविद्या 20-21 अप्रेल 1999-2000 - 101 द्रव्य - पर्यायात्मक वस्तु ज्ञान का विषय डॉ. राजकुमारी जैन - जैन साहित्य के इतिहास में अकलंकदेव वे युगप्रवर्तक आचार्य हैं जिन्होंने जैन ज्ञानमीमांसा का सुव्यवस्थित और सर्वांगीण विकास किया है। जहाँ समन्तभद्राचार्य ने प्रमुख तत्वमीमांसीय समस्याओं का अनेकान्तात्मक समाधान प्रस्तुत किया है वहीं अकलंकदेव ने ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान से अनेकान्तात्मक स्वरूप को प्रतिपादित कर समन्तभद्राचार्य द्वारा व्याख्यायित सिद्धान्तों को परिपूर्णता प्रदान की है। उनका " द्रव्य पर्यायात्मक अर्थ ज्ञान का विषय " विषयक सिद्धान्त इसका एक ज्वलन्त प्रमाण है। उनके इस विषय से सम्बन्धित कथन अत्यन्त गूढ़ और गम्भीर हैं। अतः यहाँ हम उनके टीकाकारों विद्यानन्दि, वादिराज आदि की सहायतापूर्वक उनके 44 'द्रव्य - पर्यायात्मक अर्थ ज्ञान का विषय " सिद्धान्त को समझने का प्रयास कर रहे हैं । हम एक वस्तु को उसकी अनेक विशेषताओं या धर्मों के ज्ञानपूर्वक जानते हैं । हरित वर्ण, विशेष आकार आदि गुणों के ज्ञानपूर्वक हम एक द्रव्य को तथा तना, शाखाओं, पत्तों आदि अवयवों के ज्ञानपूर्वक हम एक अवयवी वृक्ष को जानते हैं। ज्ञान का यह स्वरूप हमारे समक्ष ज्ञेय पदार्थ के एकानेकात्मक स्वरूप को प्रस्तुत करता है जो विभिन्न भारतीय दार्शनिकों के लिए एक बहुत बड़ी समस्या है। वे कहते हैं कि एक और अनेक परस्पर विरोधी धर्म हैं । अतः कोई भी वस्तु एकसाथ इन दो स्वरूपों से युक्त नहीं हो सकती। इसलिये बौद्ध दार्शनिक सत्ता को मात्र धर्मरूप, अद्वैव वेदान्ती उसे मात्र धर्मीरूप, तथा न्याय-वैशेषिक उसे परस्पर निरपेक्ष धर्म और धर्मीरूप स्वीकार करते हैं। इन सभी के अनुसार इनके द्वारा मान्य सत्ता के स्वरूप का
SR No.524767
Book TitleJain Vidya 20 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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