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जैनविद्या - 20-21
वैयावृत्य
आचार्योपाध्यायतपस्विशैक्ष्यग्लानगणकुलसङ्घसाधुमनोज्ञानाम्।
वैयावृत्त्यमित्यनुवृत्तेः प्रत्येकमभिसम्बन्धः ॥1॥ वैयावृत्यमित्यनुवर्तते तेन प्रत्येकमभिसंबन्धोः भवति आचार्यवैयावृत्यमुपाध्यायवैयावृत्त्यमित्यादि।
व्यावृत्तस्य भावः कर्म च वैयावृत्त्यम् ॥2॥कायचेष्टया द्रव्यान्तरेण वा व्यावृत्तस्य भावः कर्म वा वैयावृत्त्यमित्युच्यते।
तेषां व्याधिपरीषहमिथ्यात्वाद्युपनिपाते तत्प्रतीकारो वैयावृत्त्यम्॥15॥ तेषामाचार्यादीनां व्याधिपरीषह मिथ्यात्वद्युपनिपाते प्रासुकौषधिभक्तपानप्रतिश्रयपीठफलकसंस्तरणादिभिर्धर्मोपकरणैस्तत्प्रतीकारः सम्यक्त्वप्रत्यवस्थापनमित्येवमादि वैयावृत्त्यम्।
बाह्यद्रव्यासंभवे स्वकायेन तदानुकूल्यानुष्ठानं च। ॥16॥ बाह्यस्यौषधभक्तपानादेरसंभवेऽपि स्वकायेन श्लेष्मसिङ्घाणकाद्यन्तर्मलापकर्षणादि तदानुकूल्यानुष्ठानं च वैयावृत्त्यमिति कथ्यते।
- तत्वार्थराजवार्तिक, 9.24 कायचेष्टा या अन्य द्रव्यों से व्यावृत्त पुरुष का भाव या कर्म वैयावृत्त है। 1-2।
आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु, मनोज्ञ - इन पर व्याधि-परीषह-मिथ्यात्व आदि का उपद्रव होने पर उसका प्रासुक औषधि, आहार-पान, आश्रय, चौकी, तख्ता और संस्तरण (शैया) आदि धर्मोपकरणों से प्रतीकार करना तथा सम्यक्त्वमार्ग में दृढ़ करना वैयावृत्त्य है । औषध आदि के अभाव में अपने हाथ से खकारनाक आदि भीतरी मल को साफ करना और उनके अनुकूल वातावरण को बना देना आदि भी वैयावृत्त्य है।
अनु. - प्रो. महेन्द्रकुमार जैन, न्यायाचार्य