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जैनविद्या - 20-21 ___ उत्तम संहनन (वज्रवृषभनाराच संहनन) की प्राप्ति प्रकृष्ट पुण्य से ही होती है, जिसके बिना परमशुक्लध्यान नहीं हो सकता।
समयसार के पुण्यपापाधिकार में आचार्य जयसेन ने भी सम्यक्त्वी के. पुण्य को परम्परा से मोक्ष का कारण कहा है। आचार्य उमास्वामी ने भी पुण्य के कारण धर्मध्यान और शुक्लध्यान को मोक्ष का कारण कहा है।26 आत्मानुशासन में गुणभद्राचार्य कहते हैं -
अशुभाच्छुभमायात् शुद्धः स्यादयमागतम्।
रवेरप्राप्तसंध्यास्य तमसो न समुद्गमः॥" केवलज्ञानरूपी ज्योति का धारक आत्मारूपी सूर्य अनादिकाल से अज्ञानरूपी रात्रि में भ्रमण कर रहा है, उस मोहादिरूप रात्रि के गहन अन्धकार से मुक्त होकर शुद्ध प्रकाशपूर्ण सिद्धावस्था की प्राप्ति के लिए पहले अशुभरूपी गहन अन्धकार को चीरकर शुभरूपी लालिमायुक्त प्रात:काल को प्राप्त करना होगा। तदुपरान्त ही रत्नत्रयरूपी तेज से शुद्ध प्रकाशयुक्त शुद्धोपयोगरूपी दिन में प्रवेश किया जा सकेगा। सूर्य भी सन्ध्या (प्रभातकाल) को प्राप्त किये बिना अन्धकार का विनाश नहीं कर सकता।
अतः निश्चयनय से मोक्ष प्राप्ति के लिए पुण्य-पाप दोनों त्याज्य हैं, किन्तु व्यवहारनय से पाप को त्याग कर पुण्य उपार्जन किये बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। अत: पहले पाप को त्याग कर पुण्य का उपार्जन करना चाहिये, जिससे मोक्षप्राप्ति का साधन उत्तम गति, उत्तम कुल, उत्तम शरीर, उत्तम संहनन और उत्तम श्रुत का समागम प्राप्त हो। उत्तम गति आदि साधन के प्राप्त होते ही पुण्य और पाप दोनों को हेय समझते हुए संसार, शरीर, भोगों को तुच्छ मानकर . समस्त विकल्पों से मुक्त हो परमसमाधि (परमशुक्लध्यान) में निमग्न होकर दुस्तर संसार-सागर के पार पहुँचने का यत्न करना चाहिये । यही जीव का चरम लक्ष्य है। धर्म-अर्थ-काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों में मोक्ष पुरुषार्थ को ही सर्वश्रेष्ठ माना गया है, जो पुण्य-पाप दोनों के क्षय से ही प्राप्त हो सकता है।
1. मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगाः बन्ध हेतवः, उमास्वामी, तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय 8, सूत्र 1 2. अकलंकदेव, तत्त्वार्थवार्तिक, द्वितीय भाग, पृष्ठ 507 3. आचार्य उमास्वामी, तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय 6, सूत्र 1,2,3 4. अकलंकदेव, तत्त्वार्थवार्तिक, द्वितीय भाग, पृष्ठ 507 5. वही, पृष्ठ 507 6. वही, पृष्ठ 507 7. अकलंकदेव, अष्टसहस्री, पृष्ठ 260 8. वही, पृष्ठ 259 9. वही, पृष्ठ 259