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________________ जैनविद्या - 20-21 पुण्य से इष्ट फल की प्राप्ति होती है जो सुख का कारण है और पाप से अनिष्ट फल की प्राप्ति होती है जो दुःख का कारण है । अकलंकदेव कहते हैं " इष्टानिष्टनिमित्तभेदात्तद्भेदसिद्धेः। यदिष्ट गति जाति शरीरेन्द्रियविषयादिनिर्वर्त्तकं : तत्पुण्यम् । अनिष्ट गति जाति शरीरेन्द्रियविषयादिनिर्वर्तकं यत्रत्पापमित्यनयोरयं भेदः । "20 मिथ्यादृष्टि के पुण्य को लक्ष्य कर जोइन्दु मुनि कहते हैं कि पुण्य से सांसारिक वैभव और सुख की प्राप्ति होती है, वैभव से मद (अहंकार) हो जाता है, अहंकार से बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है और बुद्धि भ्रष्ट होने से जीव पाप की ओर अग्रसर हो जाता है, अतः ऐसा पुण्य हमारे न हो । क्योंकि वह पुण्य अनन्तः दुःख का ही कारण है पुणेण होइ विहवो विहवेण मओ मएण मइमोहो । मइमोहेण य पावं ता पुण्णं अम्ह या होउ ।1 97 श्री ब्रह्मदेव ने संस्कृत टीका में स्पष्ट किया है कि पुण्य से मदादि मिथ्यादृष्टि के ही होते हैं, सम्यक्त्वी के नहीं, वे कहते हैं - 'इदं पूर्वोक्तं पुण्यं भेदाभेदरत्नत्रयाराधनारहितेन दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षारूपनिदानबंधपरिणामसहितेन जीवेन यदुपार्जितं पूर्वभवे तदेव मदमहंकारं जनयति बुद्धिविनाशं च करोति । न च पुनः सम्यक्त्वादिगुणसहितं भरतसगररामपाण्डवादिपुण्य बंधवत् । ' यदि पुनः सर्वेषां मदं जनयति तर्हि ते कथं पुण्यभाजनाः सन्तो मदाहंकारादि विकल्पं त्यक्त्वा मोक्षं गता इति भावार्थ : 122 भेदाभेद रत्नत्रय की आराधना से रहित मिथ्यादृष्टि जीव ने देखे, सुने तथा भोगे हुए भोगों की वांछारूप निदानबंध के परिणामों सहित पूर्वभव में जो पुण्य उपार्जित किया है उससे उसे मद होता है और उसकी बुद्धि भ्रष्ट होती है; भरत, सगर, राम, पाण्डव आदि सम्यक्त्वी जीवों के नहीं । यदि सभी का पुण्य मद का कारण होता तो भरतादि पुण्यशाली व्यक्ति अहंकारादि विकारों को त्याग कर मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकते । मिथ्यादृष्टि का पुण्य अशुभोपयोग और अशुभ लेश्या से युक्त होने के कारण पापानुबंधी निरतिशय पुण्य है, जो संसार का कारण होने से त्याज्य है। सम्यक्दृष्टि का पुण्य शुभोपयोग और शुभ लेश्यादि से युक्त होने के कारण सातिशय पुण्यानुबंधी पुण्य है जो सांसारिक ऐश्वर्य में राग उत्पन्न नहीं करता अपितु उत्तम द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव को उपलब्ध कराकर परम्परा से मोक्ष का कारण होता है । सम्माइट्ठी पुण्णं ण होइ संसारकारणं णियमा । मोक्खस्स होइ हेड जड़ वि णियाणं ण सो कुठाइ ॥ ३ लौकिक सुख की प्राप्ति के लिए तो पुण्य आवश्यक है ही, मोक्षप्राप्ति के लिए भी सातिशय पुण्य आवश्यक है। आचार्य विद्यानन्दि कहते हैं - 'मोक्षस्यापि परमपुण्यातिशय चारित्र विशेषात्मकपौरुषाम्यामेवसिद्धेः । ' 124
SR No.524767
Book TitleJain Vidya 20 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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