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________________ 96 जैनविद्या - 20-21 वर्णगन्धरसस्पर्शाः, नरकतिर्यंग्गत्यानुपूर्व्यद्वयम्, उपघाताऽप्रशस्तविहायोगति स्थावर सूक्ष्माऽपर्याप्त असाधारण शरीराऽस्थिराऽशुभ दुर्भगदुःस्वराऽनोदयायशः कीर्तयश्चेति नाम प्रकृतयः चतुस्त्रिंशत्, असद्वेद्यम, नरकायुः, नीचैर्गोत्रमिति। 4 पुण्य प्रकृतियों से भिन्न 82 पाप प्रकृतियाँ हैं - ज्ञानावरण की 5, दर्शनावरण की 9, मोहनीय की 26, अन्तराय की 5, नरकगति तिर्यंचगति एकेन्द्रियादि 4 जाति, 5 संस्थान, 5 संहनन, अप्रशस्तवर्णगन्धरस और स्पर्श, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्तविहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, असाधारण शरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, अयश:कीर्ति इस प्रकार नामकर्म की 34 प्रकृतियाँ, असातावेदनीय, नरकायु तथा नीच गोत्र। जैसे लोहे की बेड़ी और सोने की बेड़ी दोनों ही परतन्त्रता (बन्धन) के कारण हैं उसीप्रकार पुण्य और पाप दोनों ही कर्म आत्मा की परतन्त्रता के कारण हैं। चाहे कोई लोहे की बेड़ी से बंधा हो या सोने की बेड़ी से, जब तक बेड़ी को नहीं काटेगा, स्वतन्त्र नहीं हो सकता। उसी प्रकार जब तक पुण्य और पाप दोनों कर्मों का संपूर्ण क्षय नहीं होगा, तब तक जीव को मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। जीव का चरम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है, मोक्ष के बिना शाश्वत और निराकुल सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती। अत: मुमुक्षु जीव को बन्धन की दृष्टि से दोनों को समान समझकर दोनों को क्षय करने का प्रयत्न करना चाहिये। जोइन्दु मुनि कहते हैं - जो णवि मण्णइ जीउ समु पुण्णु वि पाउ वि दोइ। सो चिरु दुक्खु सहंतु जिय मोहिं हिंडइ लोइ॥” जो जीव पुण्य और पाप दोनों को समान समझकर उनसे बचने का प्रयत्न नहीं करता, वह अज्ञान के कारण चिरकाल तक संसार में भटकता हुआ दु:ख सहता रहता है। पुण्य और पाप का फल बताते हुए जोइन्दु कहते हैं - पावें णारउ तिरिउ जिउ पुण्णें अमरु वियाणु। मिस्सें माणुसगइ लहइ दोहिं वि खइ णिव्वाणु॥ __ पाप से नरक तथा तिर्यंच गति मिलती है, पुण्य से देवगति की प्राप्ति होती है, पुण्य-पाप दोनों के होने पर मनुष्य गति मिलती है, किन्तु निर्वाण (मोक्ष) की प्राप्ति तो पुण्य और पाप दोनों के क्षय होने पर ही होती है। आचार्य विद्यानन्दि भी अष्टसहस्री में कहते हैं - 'नहि पुण्यपापोभयबन्धाभावासंभवे मुक्तिर्नाम संस्रतेरभावप्रसंगात्।” परतन्त्रता की दृष्टि से पुण्य और पाप दोनों में कोई भेद नहीं है, मोक्षप्राप्ति के लिए दोनों का त्याग आवश्यक है, फिर भी संसारी जीव के लिए पाप की अपेक्षा पुण्य उपादेय है। क्योंकि
SR No.524767
Book TitleJain Vidya 20 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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