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________________ जैनविद्या - 20-21 वाग्योगः। वधचिन्तनेर्ष्यासूयादिरशुभो मनोयोगः । जीवहिंसा, चोरी, मैथुनादि अशुभ काययोग हैं; असत्य वचन, कठोर भाषण आदि अशुभ वचनयोग हैं; और किसी को मारने का विचार करना, ईर्ष्या, असूया आदि के भाव अशुभ मनोयोग हैं। 'तस्मादनन्तविकल्पादशुभयोगादन्यः शुभयोगः इत्युच्यते। तद्यथा अहिंसाऽस्तेयब्रह्मचर्यादिः शुभकाययोग : सत्यहितमितभाषणादि शुभो वाग्योगः, अर्हदादिभक्तितपोरुचि श्रुतविनयादिः शुभो मनोयोगः ।' अनन्त विकल्पवाले अशुभयोग विपरीत शुभयोग हैं। अहिंसा, अचौर्य, ब्रह्मचर्यादि शुभ काययोग हैं; सत्य हितमित प्रियवचन शुभ वचनयोग हैं; अत आदि की भक्ति, तप में रुचि, शास्त्रविनय आदि शुभ मनोयोग हैं। शुभ तथा अशुभ योग को स्पष्ट करते हुए अकलंकदेव कहते हैं - 'शुभाशुभ परिणामनिर्वृत्तत्वाच्छुभाशुभव्यपदेशः ' 'शुभ परिणामनिर्वृत्तोयोगः शुभः, अशुभपरिणामनिर्वृत्तश्चाशुभ: इति कथ्यते, न शुभाशुभकर्मकारणत्वेन ।' 16 94 शुभ परिणाम से युक्त योग शुभ तथा अशुभ परिणाम से युक्त योग अशुभ है, केवल शुभाशुभ कार्य के कारण योग को शुभ अथवा अशुभ नहीं माना गया है 1 पुण्यास्रव तथा पापास्रव का विवेचन करते हुए अष्टशती में वे कहते हैं - आत्मनः परस्य वा सुखदुःखयोर्विशुद्धिसंक्लेशाङ्गयोरेव पुण्यपापात्रवहेतुत्वं न चान्यथातिप्रसङ्गात ॥' विशुद्ध परिणाम तथा संक्लेश परिणाम के कारण अपने तथा दूसरे को दिये जानेवाले सुखदुःख ही पुण्यास्रव तथा पापास्रव के कारण होते हैं। विशुद्ध परिणाम के कारण अपने तथा दूसरे को दिये जानेवाले सुख और दुःख पुण्यास्रव के कारण होते हैं और संक्लेश परिणाम के कारण अपने तथा दूसरे को दिये जानेवाले सुख-दुःख पापास्रव के कारण होते हैं । परिणामों में विशुद्धि तथा संक्लेश नहीं होने पर अपने अथवा दूसरों को सुख तथा दुःख होने पर भी पुण्यास्रव अथवा पापास्रव नहीं होते। यदि विशुद्धि और संक्लेश के अभाव में भी पुण्यास्रव और पापास्रव माने जायेंगे तो अचेतनकंटकादि तथा वीतरागी मुनि को भी बंध मानना पड़ेगा। ऐसी अवस्था में किसी को भी मोक्ष नहीं हो सकेगा। वे कहते हैं - 'परज सुखदुःखोत्पादनात् पुण्यपापबन्धैकान्ते कथमचेतनाः क्षीरादयः कण्ठकादयो वा न बध्येरन् । आत्मसुखदुःखाभ्याम् पापैतरैकान्त कृतान्ते पुनरकषाय स्यापि ध्रुवमेव बन्धः स्यात् । ततो न कश्चिन्मोक्तमुर्हति, तदुभयाभावासंभवात्' । संक्लेश क्या है? और विशुद्धि क्या है ? इसे बताते हुए वे कहते हैं - ‘आर्तरौद्रध्यानपरिणामः संक्लेशस्तदभावो विशुद्धिरात्मनः स्वात्मन्यवस्थानम् ' ।' आर्त और रौद्रध्यानरूप परिणाम संक्लेश हैं और इनका अभाव होने पर अपने स्वरूप में स्थित होना विशुद्धि है । अतः आर्तरौद्र परिणामों से युक्त मन-वचन-काय की क्रिया पापास्रव का कारण है और धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान से युक्त मन-वचन-काय की क्रिया पुण्यास्रव का है 1 कारण
SR No.524767
Book TitleJain Vidya 20 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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