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जैनविद्या - 20-21
अप्रेल - 1999-2000
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अकलंकदेव कृत पुण्य और पाप का विवेचन
- डॉ. सूरजमुखी जैन
जैनदर्शन में पुण्य और पाप को क्रिया न मानकर पदार्थ माना गया है। शुभ परिणामों से युक्त मन-वचन-काय की क्रिया से पुण्यरूप पुद्गल वर्गणाओं का आस्रव होता है और अशुभ परिणामों से युक्त मन-वचन-काय की क्रिया से पापरूप पुद्गलवर्गणाओं का आस्रव होता है। यही पुण्य और पापरूप पुद्गलवर्गणाएं मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय के कारण आत्मा के साथ बन्ध को प्राप्त होकर उसे सुख तथा दुःखरूप फल देती हैं।' यही पुण्य और पाप कर्म हैं।
पुण्य तथा पाप का विश्लेषण करते हुए अकलंकदेव कहते हैं - 'पुनात्यात्मानं, पूयतेऽनेनेति वा पुण्यम्' - जो आत्मा को प्रसन्न करे अथवा जिसके द्वारा आत्मा सुख-साता का अनुभव करे, वह सातावेदनीय आदि पुण्य हैं । 'तत्प्रतिद्वन्दिरूपम् पापम्' उसके विपरीत जो आत्मा में शुभ परिणाम न होने दे, जिसके कारण आत्मा को दुःख का अनुभव हो, वह असातावेदनीय आदि पाप हैं।
आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र में कहा है - 'कायवाङ्मनः कर्मयोगः', 'स: आस्रवः', 'शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य'।' मन-वचन-काय की क्रियाएँ योग हैं, योग आस्रव का कारण है, अत: योग ही आस्रव है, शुभयोग पुण्यास्रव का कारण है और अशुभयोग पापास्रव का कारण है। 'शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य' सूत्र की व्याख्या करते हुए अकलंकदेव कहते हैं - 'प्राणातिपाता-दत्तादानमैथुनप्रयोगादिरशुभः काययोगः। अनृतभाषणपरुषासत्यवचनादिरशुभो