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जैनविद्या 18
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विवेच्य कृतिकार ने वैयावृत्त्य का विश्लेषण दो प्रकार से किया है। एक तो शिक्षावृत्त के अन्तर्गत केवल धर्मबुद्धि से गृह-त्यागी मुनिराज के लिए आहार, कमण्डलु, पीछी, शास्त्र आदि का दान देना वैयावृत्त्य शिक्षाव्रत है । दूसरा अर्थ व्यक्त करते हुए कहा गया कि व्रती पुरुषों के गुणों का आदर करते हुए उनके कष्टों को दूर करना वस्तुत: वैयावृत्त्य है"। सल्लेखना
सत् और लेखना इन दोनों के संयोग से सल्लेखना शब्द का गठन हुआ है। सत् से तात्पर्य है सम्यक् और लेखना का अर्थ है कृश करना । सम्यक् प्रकार से कृश करना । जैन दृष्टि से काय और कषाय को कर्मबंध का मूल कारण माना है, इसीलिए उसे कृश करना ही सल्लेखना है। बाहरी शरीर का और भीतरी कषायों का क्रमश: उनके कारणों को घटाते हुए सम्यक् प्रकार से क्षीण करना वस्तुत: सल्लेखना है।
विवेच्य कृतिकार सल्लेखना की चर्चा करते हुए कहते हैं कि उपायरहित, उपसर्ग, दुष्काल, बुढ़ापा तथा रोग वगैरह के आने पर रत्नत्रयस्वरूप, धर्म का उत्तम रीति से पालन करने के लिए शरीर छोड़ना सल्लेखना है। सामायिक
समय शब्द के अर्थ हैं आत्मा की ओर मुड़ना और समय का भाव है - सामायिक । इसी बात को प्रकारान्तर से इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि सम शब्द का अर्थ है श्रेय और अयन का अर्थ है आचरण अर्थात् श्रेष्ठ आचरण है सामायिक।
सामायिक की चर्चा करते हुए विवेच्य कृतिकार की मान्यता रही है कि मन, वचन, काय तथा कृत, कारित और अनुमोदन से मर्यादा के भीतर और बाहर भी किसी निश्चित समय तक पाँचों पापों का त्याग करना सामायिक है।
___एक सौ पचास श्लोकों की इस कृति में अनेक पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग - उपयोग हुआ है किन्तु यहाँ उदाहरणार्थ मात्र सात शब्दों की पारिभाषिकता पर संक्षेप में चर्चा की गई है ताकि सुधी और रुचिवंत अनुसंधित्सु इस दिशा में प्रवृत्त हो सकें। इससे आज धार्मिक परम्परा से अनभिज्ञ व्यक्तियों के लिए इस दिशा में प्रवेश करने में यथोचित सहायता प्राप्त होगी। इत्यलम् ।
1 (अ) रत्नकरण्ड श्रावकाचार, पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य ।
(ब) बृहत् हिन्दी कोश, कालिकाप्रसाद, पृष्ठ 35 । 2. चारित्रसार, 137, 2, चामुण्डराय। 3. छेदनबन्धनपीडनमतिभारोपणं व्यतीचारा :।
आहार वारणापिच स्थूलवधाद् व्युपरते: पञ्च ।।54।। -रत्नकरण्ड श्रावकाचार, आचार्य समन्तभद्र। परिवादरहोऽभ्याख्या, पैशून्यं कूटलेखकरणं च। न्यासापहारितापि च, व्यतिक्रमा पंच सत्यस्य ।।560 -वही चौरप्रयोग चौरार्थादान विलोप सदृश सन्मिश्राः। हीनाधिक विनिमानं पंचास्तेये व्यतीपाता: ।।58।। -वही