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जैनविद्या 18
साधक को प्रत्येक उपलब्धि के लिए स्वयं पुरुषार्थ करना होता है। देव-दर्शन से मात्र अपने में प्रच्छन्न आत्म-शक्ति को जगाया जाता है। आचार्य समन्तभद्र भी देव अर्थात् आप्त को वीतरागी, सर्वज्ञ और हितोपदेशी स्वीकारते 1
प्रतिमा
मिट्टी, पाषाण अथवा धातु की मूर्ति वस्तुतः प्रतिमा कहलाती है 28 । प्रतिमा शब्द जैनागम में श्रेणी एवं अवस्था के लिए भी प्रयुक्त हुआ है 29 । देशसंयम का घात करनेवाली कषायों के क्षयोपशम की वृद्धि के वश से श्रावक या गृहस्थ के ग्यारह संयम स्थान होते हैं । इन्हीं के आधार पर श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएँ कही गयी हैं । यथा -
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1. दर्शन प्रतिमा, 2. व्रत प्रतिमा, 3. सामायिक प्रतिमा, 4. प्रोषध प्रतिमा, 5. सचित्त - त्याग प्रतिमा, 6. रात्रि - भोजन त्याग प्रतिमा, 7. ब्रह्मचर्य प्रतिमा, 8. आरम्भ-त्याग प्रतिमा, 9. परिग्रह- त्याग प्रतिमा, 10. अनुमति-त्याग प्रतिमा, 11. उद्दिष्ट - त्याग प्रतिमा ।
आगम में प्रथम छह प्रतिमाएँ जघन्य मानी जाती हैं, सात-आठ और नवमी प्रतिमाएँ मध्यम कहलाती हैं। दसवीं-ग्यारहवीं प्रतिमाएँ उत्तम मानी जाती हैं। अब यहाँ प्रत्येक प्रतिमा पर संक्षेप में चर्चा करेंगे। यथा -
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दर्शन प्रतिमा - दर्शन प्रतिमाधारी संसार और शारीरिक भोगों से विरक्त पंच परमेष्ठियों का भक्त होता है तथा सम्यक् दर्शन से विशुद्ध रहता है" । विवेच्य कृति में जो श्रावक सम्यग्दर्शन से शुद्ध हो, शरीर एवं विषय-भोगों से उदासीन हो, पंच परमेष्ठी का श्रद्धानी हो तथा अष्टमूल गुणों का धारक हो वस्तुत: वही दर्शन प्रतिमा का धारक कहलाता है'± ।
व्रत प्रतिमा - शल्य और अतिचाररहित पंचाणुव्रतों, गुणव्रतों और शिक्षाव्रतों का दृढ़तापूर्वक पालक व्रत प्रतिमा का धारक होता है । विवेच्य कृति में इसी आशय अर्थात् द्वादश शीलव्रतों के पालक को व्रत प्रतिमाधारी कहा है 34 ।
सामायिक प्रतिमा - कायोत्सर्ग में स्थित श्रावक अनुकूल-प्रतिकूल स्थिति में समभाव से स्वपर को देखता है। वह सिद्ध-स्वरूप को ध्यान करता है''। विवेच्य कृति में सामायिक प्रतिम कायोत्सर्ग स्थिति में मन, वचन, काय को शुद्ध रखकर प्रातः, मध्याह्न और सांयकाल तीन बार सामायिक ध्यान करता है 36 1
प्रोषध प्रतिमा - अष्टमी और चतुर्दशी (के चारों) पर्वों में शुभ ध्यान में तत्पर एक बार सविधि आहार-ग्रहण करता है वह श्रावक प्रोषध प्रतिमाधारी होता है" । विवेच्य कृतिकार ने प्रोषध प्रतिमाधारी को एकाशन तथा रसों का त्याग करने का निर्देश दिया है " ।
सचित्त-त्याग प्रतिमा - हरित, छाल - पत्र, प्रवाल, फल, बीज और अप्रासुक जल जो परित्याग करता है वह सचित्त त्याग - प्रतिमा का धारी कहलाता है" । इसी भाव की अनुमोदना करते हुए विवेच्य कृतिकार ने स्पष्ट किया कि इस प्रतिमा का धारी कच्चे मूल, फल, शाक, शाखा, करीर, कन्द, पुष्प और बीजों का सर्वथा त्यागी होता है |