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________________ जैनविद्या 18 (1) प्रथमानुयोग, (2) करणानुयोग, (3) चरणानुयोग, (4) द्रव्यानुयोग। प्रथमानुयोग - प्रथमानुयोग पौराणिक प्रसंगों का वर्णन करता है । आचार्य समन्तभद्र ने प्रथमानुयोग को पारिभाषित करते हुए कहा कि जिसमें महापुरुषों के जीवनचरित्र लिखे हों उसे प्रथमानुयोग कहते हैं। इस अनुयोग में पुराणों, तज्जन्य अनेक चरित्र, कथाकोश सम्मिलित किए गए हैं। करणानुयोग - करण एक मौलिक शब्द है जिसका अभिप्राय है गणित-सूत्र अथवा आत्मा के परिणाम । जिस अनुयोग में इसी लोक-अलोक का वर्णन हो, उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी आदि कालों का कथन हो, मनुष्य आदि गतियों तथा गुणस्थान आदि का वर्णन हो वह वस्तुत: करणानुयोग कहलाता है। 20 इस अनुयोग में त्रिलोकसार, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति तथा गोम्मटसार आदि ग्रंथराज उल्लेखनीय हैं। चरणानुयोग - उपासकाध्ययन आदि में श्रावक का धर्म और मूलाचार, भगवती आराधना आदि में यति का धर्म जहाँ मुख्यता से कहा गया है उसे वस्तुत: चरणानुयोग कहा जाता है । इसी बात को. विवेच्य कृति में इस प्रकार परिभाषित किया गया है - वह अनुयोग जिसमें गृहस्थ और मुनियों के चारित्र का वर्णन किया गया हो वह चरणानुयोग कहलाता है। इस दृष्टि से मूलाचार, अनगार-धर्मामृत, धर्मसंग्रहश्रावकाचार आदि उल्लेखनीय ग्रंथ हैं। द्रव्यानुयोग - तत्त्वार्थ सिद्धान्त, शुद्ध-अशुद्ध जीव आदि षट् द्रव्यों का वर्णन जिस अनुयोग में किया गया है उस अनुयोग को द्रव्यानुयोग कहते हैं। इसी अभिप्रेत को विवेच्य कृति में इस प्रकार कहा है कि जिस अनुयोग में जीव आदि सप्त तत्वों, पुण्य और पाप तथा षट् द्रव्यों का वर्णन किया गया है उसे द्रव्यानुयोग कहते हैं। आज जीवन में स्वाध्याय के संस्कार ही लुप्त हो रहे हैं, यत्किंचित् पढ़ा भी जा रहा है, वह जागतिक जीवन को प्रोत्साहन देता है और जीव-कल्याण के लिए कहीं कोई वातावरण ही सुलभ नहीं हो पा रहा है। रत्नकरण्ड श्रावकाचार में गृहस्थकल्याणार्थ अनेक उपयोगी संदर्भो की चर्चा की गयी है। पूर्व पुरुषों के प्रभावक आख्यान, लोक-बोध, जीव-शुद्धि तथा आध्यात्मिक उत्कर्ष के लिए पृथक्-पृथक् रूप से जहाँ शास्त्रों, सूक्तों और विविध सामग्री की चर्चा की गयी है, उनके स्वाध्याय किए बिना भला व्यक्ति के सुधारउद्धार की सम्भावना कैसे की जा सकती है ? इस प्रकार आज अनुयोग की पारिभाषिकता और लाक्षणिकता का अभ्यास किए बिना भला कोई कैसे लाभान्वित हो सकता है ? देव सामान्यत: स्वर्ग में विचरण करनेवाला दिव्य शक्तिसम्पन्न अमर प्राणी देव कहलाता है। इसी को देवता, परमात्मा, इन्द्र भी कहते हैं । जैनागम में देव शब्द का प्रयोग वीतरागी भगवान् अर्थात् अर्हतसिद्ध के लिए होता है । उल्लेखनीय बात यह है कि यहाँ वीतराग-देव किसी की माँग को नहीं पूरते।
SR No.524765
Book TitleJain Vidya 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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