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________________ जैनविद्या 18 (2) ( 3 ) ( 4 ) ( 5 ) काय दुःप्रणिधान अर्थात् शरीर को चंचल करना । मानस दुः पाणिधान - अर्थात् मन से दुष्ट परिणाम करना, मन को स्थिर न करना । अनादर - सामायिक की विधि का आदर नहीं करना । अस्मरण - सामायिक पाठ या मंत्र वगैरह भूल जाना । प्रोषधोपवास के अतिचार निम्नांकित हैं" ( 3 ) ( 4 ) ( 5 ) - (1) अदृष्टमृष्ट ग्रहण - भूख से पीड़ित होकर बिना देखी - शोधी हुई वस्तुओं को उठाना । (2) अदृष्टमृष्ट विसर्ग- बिना देखी - शोधी हुई भूमि पर मल-मूत्र आदि करना । अदृष्टमृष्टास्तरण - बिना देखी - शोधी हुई भूमि पर आसन आदि बिछाना । अनादर - आवश्यक कामों में आदर न होना' 5 अस्मरण - विधि को भूल जाना । वैयावृत्य के अतिचार निम्नरूप से उल्लिखित हैं 15 (1) हरित पिधान (2) ( 3 ) (4) अस्मरण - दान की विधि आदि भूल जाना । (5) मत्सरत्व - दूसरे दातारों की प्रशंसा को न सहना अथवा ईर्ष्या-भाव से आहार देना । - - देने योग्य आहार को हरे पत्तों से ढकना । हरित निधान देने योग्य आहार को हरे पत्तों पर परोसना । - अनादर - आदर से नहीं देना ।. सल्लेखना के संदर्भ में भी पाँच प्रकार के अतिचारों की चर्चा की गयी है "। सल्लेखना मृत्यु का उत्तम आयोजन है। इसके सम्पादन हेतु पाँच अतिचारों का सर्वथा त्याग आवश्यक है. (1) जीविताशंसा- जीने की अभिलाषा करना । (2) ( 3 ) ( 4 ) (5) - मरणाशंसा - अधिक तकलीफ होने से मरने की इच्छा करना । भय परलोक का भय । मित्रस्मृति परिचित मित्रों का स्मरण करना । निदान - परलोक में उत्तम भोग आदि की इच्छा करना । 81 संगत है वहाँ अज्ञान और प्रमाद के वशीभूत होने से आचरण में शिथिलता की भी सम्भावना उत्पन्न हो जाती है। ऐसी स्थिति में अतिचार का उदय और उन्नयन होता है। आज मानवीयचर्या प्रायः व्रत-विहीन हो गयी है, उसमें अतिचारों का आधिक्य है। फलस्वरूप जन-जीवन दुःख - द्वन्द्वों से सम्पृक्त है। अनुयोग आचार्य - परम्परा से आगत मूल सिद्धान्त को आगम कहते हैं। 7 । आगम वस्तुत: चार भागों में • विभक्त हैं, जिन्हें अनुयोग कहते हैं । यथा -
SR No.524765
Book TitleJain Vidya 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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