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________________ जैन विद्या 18 में सूत्रबद्ध किया है, इससे उनकी विशाल श्रुत-समुद्र को मंथन करनेवाली श्रुत-संपत्ति का भी परिचय होता है । श्री वादिराज सूरि ने इसे अक्षय सुखावह और प्रभाचंद्र ने अखिल सागरमार्ग को प्रकाशित करनेवाला निर्मल सूर्य कहा है। यह जैन साहित्य का सुप्रसिद्ध ग्रंथ है जो प्रत्येक छोटे-बड़े शास्त्र भंडार में पाया जाता है। इसका हिन्दी, अंग्रेजी, मराठी आदि भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित हो चुका है। 72 इस ग्रंथ में श्रावकों को लक्ष्य करके उस समीचीन धर्म का उपदेश दिया है जो कर्मों का नाशक एवं संसार के दुखों से निकालकर उत्तम सुखों को धारण करनेवाला है। यह धर्म सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्ररूप है और वही आराध्य है। दर्शन आदि की जो स्थिति इसके प्रतिकूल है, अर्थात् जो सम्यक् - रूप न होकर मिथ्या - रूप है वही अधर्म है और संसार - परिभ्रमण का कारण है। पं. खूबचंद जी जैन शास्त्री द्वारा रचित 'रत्नत्रय-चंद्रिका' के विभिन्न भागों में रत्नकरंड श्रावकाचार की भाषा - टीका विस्तृतरूप से की गई है। अन्य विद्वानों ने भी विभिन्न भाषाओं में टीकाएं की हैं। 1 इस ग्रंथ में धर्म के सम्यग्दर्शनादि तीनों अंगों का विस्तारपूर्वक वर्णन है । उसे सात परिच्छेदों में विभाजित किया गया है। प्रत्येक परिच्छेद का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है - मंगलाचरण नमः श्रीवर्धमानाय, निर्धूत कलिलात्मने । सालोकानां त्रिलोकानां यद्विद्या दर्पणायते ॥1॥ - कर्म- मल को धोकर अपनी आत्मा को शुद्ध करनेवाले श्री वर्द्धमान जिनेन्द्र को नमस्कार करता हूँ, जिनका केवलज्ञान अलोकाकाश सहित तीनों लोकों को दर्पण के समान झलकाता है । अर्थात् अनंत चतुष्टय-रूप अंतरंग लक्ष्मी एवं समवशरण आदि रूप बहिरंग लक्ष्मी से विभूषित भगवान महावीर को एवं परमातिशय प्राप्त केवलज्ञानी चौबीस तीर्थंकरों को नमस्कार करता हूँ। वे अपने एवं दूसरों के कर्मों के नाशक हैं। दर्पण के सदृश दर्शक के नेत्रों से दिखनेवाले उसके मुख आदिक के प्रकाशक हैं। ठीक उसी प्रकार जिनका केवलज्ञान आलोकाकाश सहित त्रिकालवर्ती अनंतानंत पर्यायों सहित षड्द्रव्यों के समूहरूप लोक को क्रम बिना एक साथ जानते हैं । उद्देश्य या धर्म का लक्षण देशयामि समीचीनं, धर्मं कर्मनिवर्हणम् । संसारदुःखतः सत्वान्, यो धरत्युत्तमे सुखे ॥2॥ - कर्मों के नाशक, अबंधित, समीचीन एवं रक्षक, उपकारी उस धर्म का कथन कहूँगा जो संसारी प्राणी को संसार के शारीरिक एवं मानसिक आदि दुखों से छुटकारा दिलाकर मोक्ष - सुख को प्राप्त कराता है । सदृष्टिज्ञानवृत्तानि, धर्मं धर्मेश्वरा विदुः । यदीय- प्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः ॥3॥ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यग्चारित्र - इन्हीं का नाम धर्म है। यही मोक्षमार्ग है। इनसे विपरीत
SR No.524765
Book TitleJain Vidya 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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