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जैनविद्या 18
अप्रेल-1996
ते
आचार्य समंतभद्र की
रत्नकरंड श्रावकाचार
- श्रीमती प्रभावती जैन
भारतीय आचार्य-परम्परा में अतिविशिष्ट अद्वितीय प्रतिभाशाली दार्शनिक, संपूर्णता को दिग्दर्शित करनेवाले अनुपम कवित्व-शक्तिसम्पन्न, आध्यात्मिक अलौकिकता से पूर्ण गौरवशाली आचार्यों में शिरोमणि स्वामी समंतभद्र के विषय में जितना भी कहा जाये, कम है।
भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् अनेक उत्कृष्ट मनीषी भारतभूमि पर हुए हैं, परन्तु उनमें आगामी तीर्थंकर होने का सौभाग्य शलाका पुरुषों में राजा श्रेणिक के साथ स्वामी समंतभद्र को ही प्राप्त हो सका है।
अनेक उत्तरवर्ती दिगम्बर एवं श्वेताम्बर आचार्यों ने, जैन-अजैन मनीषियों ने, प्रख्यात एवं प्रामाणिक विद्वानों ने आपकी अलौकिक साहित्य-मर्मज्ञता, दार्शनिक सूक्ष्मता, अद्भुत तार्किकता, भक्ति एवं दर्शन की अद्भुत समन्वयता जैसे गुणों की भूरि-भूरि प्रशंसा की है।
समंतभद्राचार्य ने अनेकातंवाद एवं स्याद्वाद के माध्यम से जिन-शासन-दर्शन की सर्वतोन्मुखी उन्नतिकर भारतीय दर्शन के चहुंमुखी विकास में विलक्षण योगदान दिया है। आचार्य समंतभद्र आचार्य कुंदकुंद के सदृश दिगम्बर जैन साहित्य के प्राण-प्रतिष्ठापक हैं। उनकी उत्कृष्ट एवं अलौकिक रचनाओं में भव्य जीवों के कल्याण की भावना निहित है। समंतभद्राचार्य के उपलब्ध ग्रंथों में श्रावकाचार एक प्रमुख ग्रंथ है । उसे उपासकाध्ययन भी कहते हैं। आचार्य समंतभद्र ने इतने गहन विषय को केवल 150 कारिकाओं