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जैनविद्या 18
जिनस्तुतिशतक के अन्त में आचार्य समन्तभद्र ने भगवान की आराधना कर स्वयं को उसके फल का अधिकारी बतलाया है, यहां परिसंख्या के साथ काव्यलिंगअलंकार का चमत्कार परिलक्षित हो रहा है -
सुश्रद्धा मम ते मते स्मृतिरपि त्वयंर्चनं चापि ते, हस्तावंजलये कथाश्रुतिरतः कर्णोऽक्षि संप्रेक्षते । सुस्तुत्यां व्यसनं शिरो मतिपरं सेवेदृशी येन ते ।
तेजस्वी सुजनोऽहमेव सुकृती तेनैव तेज:पते ॥1141 शब्दालंकार और अर्थालंकार के साथ यह काव्य चित्रालंकार से मण्डित है। इसमें मुरजबन्ध, अर्थ-भ्रम', गतप्रत्यागतार्द, चतुरक्षर चक्रश्लोक', अनन्तरपाद मुरजबन्ध, अष्टैकाक्षरान्तरित मुरजबन्ध", अनुलोम प्रतिलोमश्लोक'', दसवलय के चक्रश्लोक', अनुलोम-प्रतिलोम श्लोक युगल' आदि चित्रालंकारों का प्रयोग हुआ है। यह अलंकारनिरूपण पाठकों को आश्चर्यचकित कर देता है।
जिनस्तुतिशतक भक्तियोग का प्रमुख ग्रन्थ है। इसके स्तुति, पूजा, वन्दना, आराधना, शरणागति, भजन, स्मरण, नाम-कीर्तन आदि अंग हैं जो आत्मविकास में और मन की एकाग्रता में सहायक हैं। भक्तिपरक इस ग्रन्थ में जैन दर्शन के सिद्धान्तों की विवेचना रोचक और कलात्मक शैली में हुई है। जहाँ इसका कला-पक्ष सबल है वहीं भावपक्ष भी मनोहारी है। काव्य से निसृत रस-सरिता में अवगाहनकर सहृदय अलौकिक आनन्द की मस्ती में डूब जाता है। संस्कृत शतक परम्परा का आद्य शतक 'जिनस्तुति शतक' परवर्ती शतकों के लिए आधार स्तम्भ है।
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स्तुतिविद्या, समन्तभद्राचार्य, वीरसेवा मन्दिर, सरसावा (सहारनपुर), 30 जुलाई 1950, प्रस्तावना, पृष्ठ-5। वही, प्रस्तावना, पृष्ठ-11 स्वयंभूस्तोत्र, समन्तभद्राचार्य, 86-87। स्तुतिविद्या, समन्तभद्राचार्य, 22, 24, 70। वही 2,50, 521 वही, 2,6-9,21,30-35,39-42,45,58-63,65,67-71,73-78,80,82,99, 101-1051 वही, 3, 4, 18-21, 27, 36, 43, 44,56, 90, 92। वही, 10, 83, 88,951 वही, 22, 26, 53,541 वही, 48, 64, 66, 1001 वही, 50,89,911 वही, 57, 96, 98।। वही, 110-115। वही, 861
मील रोड, गंजबासोदा, विदिशा, म.प्र.-464221
10. 11. 12. 13. 14.