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________________ जैनविद्या 18 69 द्वयक्षर विरचित समुद्गक यमक - नेतानतनुते नेनोनितान्तं नाततो नुतात् । . नेता न तनुते नेनो नितान्तं ना ततो नुतात् ॥52॥ निम्न पद्य में अष्टम तीर्थंकर चन्द्रप्रभ और चन्द्रमा दोनों पक्ष में अर्थ निकलने से श्लेष अलंकार है - प्रकाशयन् खमुद्भूतस्त्वमुद्घांक कलालयः। विकासयन् समुद्भूतः कुमुदं कमलाप्रियः ॥31॥ अधोलिखित पद्य में जिनेन्द्रदेव और क्षीरसागर में अभेद स्थापित किया गया है अत: रूपक अलंकार है - काममेत्य जगत्सारं जनाः स्नात महोनिधिम् । विमलात्यन्तगम्भीरं जिनामृतमहोदधिम् ।।42॥ • भव्य जीव के द्वारा जिनेन्द्रदेव को नमस्कार करने पर कवि ने कल्पना की है मानो वे उनके चरणकमलों का सौन्दर्य लेने के लिए ही नमस्कार करते हैं। यह उत्प्रेक्षा अलंकार का उदाहरण है - आलोक्य चारु लावण्यं पदाल्लातुमिवोर्जितम् । त्रिलोकी चाखिला पुण्यं मुदा दातुं ध्रुवोदितम् ॥45॥ भगवान (उपमेय) के सौन्दर्य को हृदयंगम कराने के लिए कवि ने व्यतिरेक अलंकार का प्रयोग किया है - खलोलूकस्य गोवातस्तमस्ताप्यति भास्वतः । कालोविकलगोधातः समयोऽप्यस्य भास्वतः ॥34॥ यहाँ भगवान को सूर्य से भी अधिक गुणवाला दर्शाया गया है। अत: व्यतिरेक अलंकार है। कवि ने विरोधाभास अलंकार के माध्यम से जिनेश्वर के वैशिष्ट्य को निरूपित किया है। यथा - एतच्चित्रं क्षितिरेव घातकोपि प्रसादकः। भूतनेत्र पतेस्यैव शीतलोपि च पावकः ॥1॥ ___- हे प्राणिलोचन प्रभो, आश्चर्य की बात है कि आप पृथ्वी के (पक्ष में ज्ञानावरणादि कर्मों के ) घातक होकर भी पालक/रक्षक हैं और शीतल/ठण्डे (पक्ष में शीतलनाथ दशम तीर्थंकर) होकर भी पावक/अग्नि (पक्ष में पवित्र करनेवाले) हैं । यहाँ विरोधाभास से रमणीयता का आधान हुआ है। निम्न पद्य में कवि ने परिसंख्या अलंकार के माध्यम से अपने मनोभावों को अभिव्यंजित किया है - प्रज्ञा सा स्मरतीति या तव शिरस्तद्यन्नतं ते पदे । जन्मादः सफलं परं भवभिदी यत्राश्रिते ते पदे ॥ मांगल्यं च स यो रतस्तव मते गी: सैव या त्वा स्तुते । ते ज्ञा मे प्रणता जनाः क्रमयुगे देवाधिदेवस्य ते॥113॥
SR No.524765
Book TitleJain Vidya 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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