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________________ 68 जैनविद्या 18 इष्टफल का दाता, परम्परा से मोक्ष का कारण कहा जाता है। स्वामी समन्तभद्र ने जिन-स्तवन को भवपरम्परा के विच्छेद का कारण माना है और कर्मबन्धन से मुक्त होने की कामना की है - नुन्नातीतितनून्नतिं नितनुतान्नीतिं निनूतातनु न्तान्तानीतिततान्नुतानन नतान्नो नूतनैनोन्तु नो ।।109॥ भगवद्-भक्ति का ही प्रभाव है कि मानव जन्म, जरा, मरण आदि रोगों को और कर्मों को नष्ट करके अर्हन्त तथा सिद्ध अवस्था प्राप्त कर लेता है। इसीलिये आचार्यश्री ने जिनेन्द्र के गुण-समुद्र में स्नान करने, पूजन-नमन एवं भक्ति करने हेतु मानव को प्रेरित किया है। ___ भक्तिरस के सागर 'जिनशतक' में जहां भावों की मनोहरता स्पृहनीय है वहीं इसका काव्य-वैभव, शब्द-गौरव, अलंकार-सौन्दर्य भी पाठकों को आश्चर्यचकित कर देता है। इसके कलापक्ष पर दृष्टिपात करना उचित होगा। ___ एक ही अक्षर 'त' से निर्मित (एकाक्षर) पद्य में कवि के अगाध पाण्डित्य और शब्द-कौशल का चमत्कार दर्शनीय है - ततोतिता तु तेतीतस्तोतृतोतीतितोतृतः । ततोऽतातिततोतोते ततता से ततोततः ॥13॥ इसी प्रकार एक ही अक्षर से निर्मित एक-एक पाद, 'एकाक्षर विरचितैकैक पादः' श्लोक का उदाहरण देखिये - येयायायाययेयाय नानानूनाननानन । ममाममाममामामिताताततीतितती तितः ॥14॥ यमक अलंकार के विविध भेदों का प्रयोग भी जिनस्तुतिशतक में प्रचुरता से मिलता है। यथा - समुद्गक यमक - देहिनो जयिन: श्रेयः सदाऽतः सुमेते हितः। देहि नोजयिनः श्रेयः स दात: सुमतेहितः ।।25।। साधिक पादाभ्यास यमक - नतपीला सनाशोक सुमनोवर्षभासितः। भामण्डला सनाऽशोक सुमनोवर्षभाषितः ॥5॥ पादाभ्यास सर्वपादान्त यमक - गायतो महिमायते गा यतो महिमाय ते। पद्मया स हि तायते पद्मया सहितायते॥15॥ श्लोक यमक - स्वयं शमयितुं नाशं विदित्वा सन्नतस्तु ते। चिराय भवते पीड्यमहोरुगुरवेऽ शुचे ॥11॥ स्वयं शमयितुं नाशं विदित्वा सन्नतः स्तुते। चिराय भवते पीड्य महोरुगुरवे शुचे ॥12॥
SR No.524765
Book TitleJain Vidya 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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