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________________ जैन विद्या 18 रोगपातविनाशाय तमो नुन्महिमायिने । योगख्यातजनार्चाय श्रमोच्छिन्मंदिमासिने ॥76॥ - हे स्वामिन्! हे अजेय ! आप अपराधरहित हैं/निष्पाप हैं, काम की बढ़ती हुई महिमा को और जन्म-मरणरूप संसार को नष्ट करनेवाले हैं तथा तीनों लोकों के स्वामी हैं । अत: हे शान्ति जिन, आपको नमस्कार है। आप रोगों तथा पापों के नाशक हैं, आपने अज्ञानान्धकार नष्ट कर दिया है। आपकी बड़ी महिमा है। आप स्वेद, खेद आदि दोषों के नाशक हैं। अत्यन्त दयालु हैं। योगियों में प्रसिद्ध गणधर आदि देव आपकी पूजा करते हैं। आपको नमस्कार करते हैं । 67 अर्हद्-भक्ति के माध्यम से भक्त भगवान की शरण में आता है और दुःखों से मुक्त होने तथा शाश्वत अक्षय सुख की प्राप्ति में उनको ही आधार मानकर निवेदन करता है - धाम स्वयममेयात्मा मतयादभ्रयाश्रिया । स्वया जिन विधेया मे यदनन्तमविभ्रम ॥20॥ अतमः स्वनतारक्षी तमोहा वन्दनेश्वरः । महाश्रीमानजो नेता स्वव मामभिनन्दनः ॥21॥ - हे मोहरहित जिनेन्द्र ! आप अपनी अभिमत लक्ष्मी से ही अमेयात्मा हुए हो अतः आप मुझे भी उत्तम पुण्य/सुख से परिपूर्ण वह धाम/ तेज / ज्ञान प्रदान कीजिए जिसका अन्त न हो। हे अज्ञानान्धकारह अभिनन्दननाथ जिनेन्द्र, जो आपको नमस्कार करते हैं आप उनकी रक्षा करते हैं। आप मोहरहित हैं, वन्दना के ईश्वर हैं, अनन्त चतुष्टय तथा अष्ट प्रातिहार्यरूप लक्ष्मी से सहित हैं, अज / जन्म से रहित हैं और नेता / मोक्षमार्गोपदेशक हैं अत: मेरी रक्षा कीजिए । संसार के दुःखों से भयभीत एवं मोक्षमार्ग के पथिक स्वामी समन्तभद्राचार्य ने अर्हत् जिन के समक्ष आत्माभिव्यक्ति की है और भक्ति का माहात्म्य स्पष्ट किया है। भगवान की भक्ति का महात्म्य अचिन्त्य है । यदि कोई व्यक्ति चाहे तो नाव के द्वारा समुद्रों को पार कर सकता है पर स्तुतिरूप वचनों से आपके गुणों को पार नहीं कर सकता क्योंकि आपके गुण अनन्त हैं फिर भी भक्त पुरुष क्षण-भर आपकी भक्ति करके स्वयं को पवित्र बना सकता है - यतः कोपि गुणानुक्त्या नावाब्धीनपि पारयेत् । न तथापि क्षणाद् भक्त्या तवात्मानं तु पावयेत् ॥59॥ भगवान की भक्ति का ही प्रभाव है कि जो उन्हें नमन करता है वह जन्म-मरण का अन्त करके अनन्त हो जाता है। पापों का क्षय करके ज्ञानादि गुणों से सम्पन्न होता है। वर्तमान में निरोग और परलोक स्वर्ग/मोक्ष प्राप्त करता है। जिनेश्वर के स्तवन से शुभ भाव होते हैं फलस्वरूप पाप प्रकृतियों का क्षय होता है और पुण्य प्रकृतियाँ बढ़ती हैं जिससे वांछित प्रयोजन अनायास ही सिद्ध हो जाते हैं । इसीलिए स्तुति - वन्दना को
SR No.524765
Book TitleJain Vidya 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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