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________________ 66 जैनविद्या 18 का प्रयोग हुआ है। यही कारण है कि इसके टीकाकार आचार्य वसुनन्दि ने टीका के प्रारम्भ में समस्त गुणगणोपेता' 'सर्वालंकार भूषिता', योगिनामपि दुष्करा', 'सद्गुणाधारा', 'सुपद्मिनी' आदि विशेषणों से युक्त कहा है । अलंकारों की प्रधानता के कारण इसे जिन शतकालंकार तथा संक्षिप्तरूप से जिनशतक भी कहते हैं। इसका मूल नाम स्तुतिविद्या' है जो ग्रन्थ के प्रतिज्ञा वाक्य स्तुतिविद्या प्रसाधये' से स्पष्ट है । लोक में गुणों को बढ़ा-चढ़ा कर कहना स्तुति कहा जाता है पर समन्तभद्राचार्य इस कथन से असहमत हैं। उनका कहना है कि हे भगवन्, आपके तो अनन्त गुण हैं जिन्हें पूर्णरूप से कहा नहीं जा सकता, बढ़ा-चढ़ा कर कहने की तो बात ही अलग है। अत: लोक में प्रचलित स्तुति आप में बन ही नहीं सकती है, फिर भी आपका नाम, कीर्तन भी हमें पवित्र करता है इसलिए हम आपके गुणों का आंशिक कीर्तन करते हैं । कवि ने स्तुतिविद्या के आरम्भ में जिनेन्द्रदेव का स्मरण कर आगसां जये' (पापों को जीतने के लिए) कहकर काव्य के प्रयोजन को स्पष्ट किया है। आद्य स्तुति-शतककार सच्चे अर्हद्-भक्त थे। उनका अहंकार/मान विगलित हो गया था। अनेक स्थानों पर उन्होंने जिनेन्द्र की स्तुति करने में असमर्थता अभिव्यक्त की है जो उनकी विनम्रता की पराकाष्ठा की परिचायक है - वंदे चारुरुचां देव भो वियाततया विभो। त्वामजेय यजे मत्वा तमितांतं ततामित ॥28॥ - हे विभो, आप उत्तम कान्ति, भक्ति अथवा ज्ञान से सम्पन्न जीवों के देव हो, अंतरंग और बहिरंग शत्रुओं से अजेय हो, अनन्त पदार्थों के निरूपक हो। हे पद्मप्रभ देव, मैं आपको अन्तरहित/अविनश्वर मानकर बड़ी धृष्टता से नमस्कार करता हूं और बड़ी धृष्टता से ही आपकी पूजा कर रहा हूँ। यहाँ आचार्य का अभिप्राय है कि इन्द्र, गणधर आदि भी जब यथोचित रीति से आपका पूजन, गुण-स्तवन नहीं कर सकते फिर आपके प्रति मेरे पूजनादि कार्य धृष्टता ही हैं। जब भक्त का अहंकार विगलित हो जाता है तब वह अत्यन्त भक्ति-भाव से जिनेन्द्रदेव के गुणस्तवन कर उन्हें नमस्कार करता है - चारुश्रीशुभदौ नौमि रुचा वृद्धौ प्रपावनौ । श्रीवृद्धौतौ शिवौ पादौ शुद्धौ तव शशिप्रभ ॥36॥ - हे चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र, आपके चरण-कमल सुन्दर समवसरणादि लक्ष्मी और निःश्रेयस आदि कल्याणदायक हैं, कान्तिमान हैं, अत्यन्त पवित्र हैं, अन्तरंग-बहिरंग लक्ष्मी को वरनेवाले हैं, प्रक्षालित हैं, कल्याणरूप हैं और अत्यन्त शुद्ध हैं अत: उन्हें नमस्कार करता हूँ। शान्तिनाथ जिनेन्द्र की आराधना/वन्दना कवि के शब्दों में देखिये - नागसे न इनाजेय कामोद्यन्महिमादिने । जगत्रितयनाथाय नमो जन्मप्रमाथिने ॥75॥
SR No.524765
Book TitleJain Vidya 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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