________________
जैनविद्या 18
अप्रेल-1996
संस्कृत परम्परा का आद्य शतक : जिनस्तुतिशतक
- डॉ. (कु.) आराधना जैन ‘स्वतंत्र'
ईसा की द्वितीय शताब्दी के स्वामी समन्तभद्राचार्य का दिगम्बराचार्यों में महत्वपूर्ण स्थान है। आचार्य जिनसेन, वादिराजसूरि, शुभचन्द्राचार्य, वर्धमानसूरि, वादीभसिंह, वीरनन्दी आचार्य आदि ने अपने ग्रन्थों में अत्यन्त श्रद्धा से समन्तभद्राचार्य के नाम का स्मरण किया है। वे धर्मशास्त्री, तार्किक और योगी थे। धर्म, न्याय, व्याकरण, साहित्य, ज्योतिष, आयुर्वेद, मन्त्र, तन्त्र आदि विद्याओं में तो निपुण थे ही, वाद-विवाद में भी अत्यन्त पटु थे। उन्होंने स्वान्तःसुखाय के साथ सर्वजन हिताय के लक्ष्य से अनेक ग्रन्थों का सृजन किया है। उनके द्वारा संस्कृत में विरचित उपलब्ध ग्रन्थ हैं - स्वयंभूस्तोत्र, आप्तमीमांसा, युक्त्यनुशासन, जिन स्तुतिशतक और रत्नकरण्डश्रावकाचार । इनमें प्रथम चार स्तुति ग्रन्थ भक्ति रस से परिपूर्ण हैं। स्वयंभूस्तोत्र, आप्तमीमांसा और युक्त्यनुशासन में स्तोत्र-प्रणाली से दर्शन, न्याय, धर्म, भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोग समाहित है। जिनस्तुतिशतक शब्दालंकारप्रधान स्तुति काव्य है। समन्तभद्राचार्य ने काव्य-सृजन के माध्यम से स्तुतिविद्या का उद्धार, संस्कार एवं विकास किया है अत: उन्हें दिगम्बर जैन संस्कृत परम्परा के आदि कवि, आद्य स्तुतिकार एवं आद्य शतककार होने का गौरव प्राप्त है। उनसे पूर्व का जैन संस्कृत साहित्य काव्य के रूप में न होकर सूत्र के रूप में उपलब्ध है। यहाँ जिनस्तुतिशतक के कुछ बिन्दुओं पर विचार किया जा रहा है।
शतक शब्द सौ के समूह का वाचक है । शतक काव्य में सौ-एक सौ पच्चीस तक पद्य होते हैं। जिनस्तुतिशतक उच्च कोटि का स्तुति काव्य है। इसमें विविध छन्दों में निबद्ध 116 पद्य हैं। अलंकृत भाषा में कलात्मक रूप से चतुर्विंशति तीर्थंकरों की स्तुति की गई है। शब्दालंकारों, अर्थालंकारों और चित्रालंकारों