SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 8
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ "भगवान महावीर के शासन में, गौतम गणधर के बाद स्वामी समन्तभद्र ही ऐसे आचार्य हैं जिन्होंने जैन न्याय-सिद्धान्त को प्रतिष्ठापित किया और स्याद्वाद चिह्नित महावीर वाणी को केवलज्ञान के अंश के रूप में प्रमाणिकता एवं गरिमा प्रदान की। आत्म-साधना, प्रखर दार्शनिक एवं विद्वत्तापूर्ण रचनाओं तथा अनेकान्त दर्शन के प्रचार-प्रसार में स्वामी समन्तभद्र के अनुपम अद्भुत योगदान के कारण उन्हें सदैव स्मरण किया जाता रहेगा।" "जिनस्तुतिशतक-स्तुविविद्या भक्तियोग का प्रमुख ग्रन्थ है। इसके स्तुति, पूजा, वन्दना, आराधना, शरणागति, भजन, स्मरण, नाम-कीर्तन आदि अंग हैं जो आत्मविकास में और मन की एकाग्रता में सहायक हैं। भक्तिपरक इस ग्रन्थ में जैन दर्शन के सिद्धान्तों की विवेचना रोचक और कलात्मक शैली में हुई है। जहाँ इसका कला-पक्ष सबल है वहीं भावपक्ष भी मनोहारी है। काव्य से निसृत रस-सरिता में अवगाहन कर सहृदय अलौकिक आनन्द की मस्ती में डूब जाता है। संस्कृत शतक-परम्परा का आद्य शतक जिनस्तुति शतक परवर्ती शतकों के लिए आधार-स्तम्भ है।" "स्तुतिविद्या' जैसी सशक्त शब्दालंकार और चित्रालंकारों से युक्त रचना को देखकर ऐसा लगता है मानो चित्रकाव्य के सर्वप्रथम स्रष्टा स्वामी समन्तभद्राचार्य ही रहे हों। इनसे पूर्व ऐसी विशिष्ट चित्रकाव्यात्मक कृति कतई दृष्टिगोचर नहीं होती है। संभवतः चित्रकाव्य की यह सबसे पहली ही रचना हो।" "स्वयंभूस्तोत्र आचार्य श्री समन्तभद्र की प्रौढ रचना है। इसमें चतुर्विंशति जिनेन्द्रों की स्तुति की गई है।" "रत्नकरण्ड श्रावकाचार' श्रावकाचार-परम्परा में पहला श्रावकाचार है। यह स्वामी समन्तभद्र की एक सारगर्भित कृति है । आचार्य ने अव्रती श्रावक से लेकर व्रती श्रावक की समस्त क्रियाओं का प्रतिपादन किया है। इस श्रावकाचार में 150 श्लोक हैं जिनमें सम्यग्दर्शन का स्वरूप, सच्चे देव-शास्त्र और गुरु का स्वरूप बताकर सम्यग्ज्ञान और उसके अंगों को बताया है। सम्यक्चारित्र में व्रती श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का, बारह व्रतों का, उनके 60 अतिचारों का, सम्यग्दर्शन के पाँच और सल्लेखना के पाँच अतिचारों का वर्णन किया है।" “आचार्य समन्तभद्र द्वारा प्रणीत रत्नकरण्ड श्रावकाचार' चरणानुयोग से अनुप्राणित जैन साहित्य या आगम का प्रतिनिधित्व करता है।” “जैन-जगत में श्रावकचर्या को संयत और सुगठित रखने के लिए रत्नकरण्ड श्रावकाचार का अवदान अत्यधिक मूल्यवान है । गृहस्थचर्या का यह वस्तुतः एक नैतिक संविधान है।" "जैन वाङ्मय के रचयिताओं तथा जैन संस्कृति के प्रभावक आचार्यों में श्री समन्तभद्र स्वामी का नाम अत्यन्त श्रद्धा एवं आदर के साथ लिया जाता है। आप एक ऐसे सर्वतोमुखी प्रतिभाशाली आचार्य रहे हैं जिन्होंने ने वीर-शासन के रहस्य को हृदयंगम कर दिग्-दिगन्त में उसे व्याप्त किया। आपके वैदूष्य का एक वैशिष्ट्य यह था कि आपने समस्त दर्शनों का गहन अध्ययन किया और उनके गूढ़तम रहस्यों का
SR No.524765
Book TitleJain Vidya 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy