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में उपलब्ध आप्तमीमांसा की एक ताड़पत्रीय प्रति के अनुसार समन्तभद्र फणिमण्डल के अन्तर्गत उरगपुर के क्षत्रिय राजा के पुत्र थे।"
"स्वामी समन्तभद्र बहुमुखी भद्र थे। भद्रता उनके व्यक्तित्व का प्रमुख गुण था। वे महान योगी, त्यागी, तपस्वी एवं तत्वज्ञानी थे। वे महावादी, तर्क-पटु एवं परीक्षा-प्रधानी थे। उन्होंने सर्वज्ञ-अभावभादी मीमांसक, भावैकवादी सांख्य, एकान्त पर्यायवादी एवं क्षणिकवादी बौद्ध, सर्वथा उभयवादी वैशषिक एवं नास्तिकवादी चार्वाक के एकान्त दर्शन की अपूर्णता सार्वजनिकरूप से सिद्धकर जन-मन में अरहंत भगवान के अनेकान्त दर्शन एवं स्याद्वाद को प्रतिष्ठापित किया । अपने बहुमुखी तत्वज्ञान, वाकपटुता, सहज आकर्षण, भाषाधिकार, शुद्ध अन्तःकरण, निर्मल पवित्र जीवन-यात्रा एवं आत्मवैभव द्वारा उन्होंने एकान्तवादियों के अज्ञान अंधकार को दूरकर उन्हें आत्मज्ञानी बनाया।"
_ “कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र ने अपने 'सिद्धहैमशब्दानुशासन' में स्वामी समन्तभद्र को 'स्तुतिकार', श्री मलयगिरि सूरि ने आवश्यक सूत्र' की टीका में इन्हें 'आद्य स्तुतिकार' के रूप में प्रणाम किया है। इतिहास का अवलोकन करने से भी पता चलता है कि स्वामी समन्तभद्र से पूर्व स्तुतिविद्या का प्रणयन प्रारम्भ ही नहीं हुआ था अतः साहित्य की एक नई विधा के प्रवर्तक होने के कारण आप स्तुतिकार' या आद्य स्तुतिकार' के रूप में वंदनीय रहे।"
___ “स्वामी समन्तभद्र की पाँच पद्यात्मक रचनाएं उपलब्ध हैं जो मूलतः भक्तिपरक होकर गूढ़, रहस्यमयी, दार्शनिक रचनाएं कही जाती हैं- 1. आप्तमीमांसा या देवगम स्तोत्र, 2. युक्त्यनुशासन या वीर जिन स्तोत्र, 3. स्तुतिविद्या या जिनशतक, 4. स्वयंभूस्तोत्र और 5. रत्नकरण्ड श्रावकाचार।
___ “आचार्य समन्तभद्र की प्रथम रचना आप्तमीमांसा का आरम्भ ‘देवागम' शब्द से हुआ है। इसमें दस परिच्छेद और एक सौ चौदह कारिकाएं हैं। एकान्तवादी दृष्टिकोणों का समुचित निरसन और आप्त पुरुषों के आप्तत्व की सम्यक् मीमांसा के कारण इस कृति का नाम 'आप्तमीमांसा' पड़ा। यह ग्रन्थ जैनदर्शन का आधारभूत ग्रन्थ है। आचार्य अकलंक ने इस ग्रन्थ पर अष्टशती नामक भाष्य लिखा है। अष्टशती भाष्य पर आचार्य विद्यानन्द ने अष्टसहस्री' नामक विशाल टीका लिखी है। यशोविजयजी ने अष्टसहस्री पर संस्कृत टीका और आचार्य वसुनन्दि ने संक्षिप्त देवागम वृत्ति की रचना की है। पण्डित जयचन्द छाबड़ा की एक हिन्दी टीका भी प्रकाशित है।"
“आज के एकान्तवाद के पूर्वाग्रही समाज के लिए आचार्य समन्तभद्र के इस अनेकान्तवाद अर्थात् समतावादी दृष्टिकोण को अपनाना अत्यावश्यक है; क्योंकि बिना अनेकान्त दृष्टि के न्याय-अन्याय की पहचान सम्भव नहीं है। जो सुखमय और समतामूलक जीवन की वस्तुस्थिति या मूलकारण को जानने की इच्छा करते हैं उनके लिए आचार्य समन्तभद्र का वीरस्तवरूप ‘युक्त्यनुशासन' हितान्वेषण के उपायस्वरूप है। आज समस्त अलोकतान्त्रिक घटनाएँ श्रद्धा और गुणज्ञता के अभाव के कारण ही घटती हैं। अवश्य ही, ‘युक्त्यनुशासन' एक ऐसी महिमामयी शाश्वतिक कृति है जिसमें लोकहित की अनेकान्तदृष्टि निहित है।"