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सम्पादकीय
"भगवान महावीर की आचार्य - परम्परा में स्वामी समन्तभद्र का अतिविशिष्ट स्थान होने के कारण परवर्ती आचार्यों ने उन्हें कलिकाल गणधर, भारत भूषण, कविन्द्र भास्वान्, आद्य-स्तुतिकार, भावी तीर्थंकर, भद्रमूर्ति और जिन शासन के प्रणेता जैसी अति सम्मानित उपाधियों सहित स्मरण किया है । स्याद्वादी स्वामी समन्तभद्र का उदय उस समय हुआ जब भारतीय दार्शनिक-क्षितिज में अश्वघोष, मातृचेट, नागार्जुन, कणाद, , गौतम और जैमिनी जैसे मनीषी वस्तु स्वरूप के अंशज्ञान को सर्वांश कह रहे थे। ऐसे संक्रमणकाल में उन्होंने अपनी कालजयी कृति आप्तमीमांसा में ईश्वर, कपिल, सुगत और परमपुरुष ब्रह्मा की तार्किक परीक्षाकर वीतराग-सर्वज्ञ अरहंत भगवान को सच्चा आप्त (ईश्वर) घोषित किया। स्वामी समन्तभद्र ने सर्वज्ञ (तीर्थंकर) - परीक्षा एवं उनकी स्तुति में भक्तिपरक, गूढ़ - दार्शनिक एवं तार्किक रचनाएं लिखकर सर्वज्ञता, अनेकान्त, दया (अहिंसा), स्याद्वाद एवं अपरिग्रह की जन-प्रतिष्ठा की। उनके इस अद्भुत योगदान को दृष्टिगत कर परवर्ती आचार्यों / विद्वानों ने अपनी रचनाओं में स्वामी समन्तभद्र को अनेक उपमाओं से विभूषित कर अति श्रद्धापूर्वक स्मरण किया है। "
"आचार्य जिनसेन, वादिराजसूरि, शुभचन्द्राचार्य, वर्धमानसूरि, वादीभसिंह, वीरनन्द आचार्य आदि ने अपने ग्रन्थों में अत्यन्त श्रद्धा से समन्तभद्राचार्य का नाम स्मरण किया है। वे धर्मशास्त्री, तार्किक और योगी थे । धर्म, न्याय, व्याकरण, साहित्य, ज्योतिष, आयुर्वेद, मन्त्र-तन्त्र आदि विधाओं में तो निपुण थे ही, वाद-विवाद में भी अत्यन्त पटु थे। उन्होंने स्वान्तः सुखाय के साथ सर्वजनहिताय के लक्ष्य से अनेक ग्रन्थों का सृजन किया है। उनके द्वारा संस्कृत में विरचित उपलब्ध ग्रन्थ हैं - स्वयंभूस्तोत्र, आप्तमीमांसा, युक्त्यनुशासन, जिन स्तुतिशतक और रत्नकरण्ड श्रावकाचार । इनमें प्रथम चार स्तुति-ग्रन्थ भक्ति रस से परिपूर्ण हैं । स्वयंभूस्तोत्र, आप्तमीमांसा और युक्त्यनुशासन में स्तोत्र - प्रणाली से दर्शन, न्याय, 1 धर्म, भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोग समाहित हैं । जिनस्तुतिशतक शब्दालंकार - प्रधान स्तुति काव्य है । समन्तभद्राचार्य ने काव्य-सृजन के माध्यम से स्तुतिविद्या का उद्धार, संस्कार एवं विकास किया है अतः उन्हें दिगम्बर जैन संस्कृत परम्परा के आदि कवि, आद्य स्तुतिकार एवं आद्यशतककार होने का गौरव प्राप्त है। उनसे पूर्व का जैन संस्कृत साहित्य काव्य के रूप में न होकर सूत्र के रूप में उपलब्ध है।”
‘“स्वामी समन्तभद्र का समय 120 ई. से 185 तक का सुनिश्चित होता है । स्व. जुगलकिशोर जी मुख्तार, स्व. डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन एवं स्व. डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री प्रभृति विद्वानों ने इसकी पुष्टि की है। उनके पिता नागवंशी चोल नरेश कीलिकवर्मन तथा अग्रज श्री सर्ववर्मन ( शेषनाग ) थे । अठारह वर्ष की अल्पायु में ही आप मुनि पद पर दीक्षित हो गये थे और लगभग आधी सदी तक जैन धर्म का डंका बजाते हुए जैन तत्त्वज्ञान और दार्शनिक पक्षों की व्याख्या करते हुए एक क्रान्तिकारी आचार्य के रूप में अपने प्रतिद्वन्द्वियों को सम्मोहित करते हुए लगभग 185 ई. को स्वर्गारोहित हुए। "
"स्वामी समन्तभद्र के माता-पिता आदि का नाम स्पष्टरूप से ज्ञात नहीं है। फिर भी श्रवणबेलगोल