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________________ तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया था। आपने धर्मशास्त्र के मर्म को हृदयंगम कर उसके आचरण-व्यवहार में विशेषरूप से तत्परता प्रकट की। आपकी पूजनीयता एवं महनीयता के कारण ही परवर्ती अनेक आचायों एवं मनीषियों ने अत्यन्त श्रद्धा एवं बहुमानपूर्वक आपको स्मरण किया है। आचार्य विद्यानन्द स्वामी ने 'युक्त्यनुशासन टीका' के अन्त में आपको परीक्षेक्षण'-परीक्षा-नेत्र से सबको देखनेवाले लिखा है। इसी प्रकार अष्टसहस्री में आपके वचन-महात्म्य का गौरव ख्यापित करते हुए आपको बहुमान दिया गया है। श्री अकलंकदेव ने अपने ग्रंथ अष्टशती' में आपको भव्यैकलोकनयन' कहते हुए। आपकी महनीयता प्रकट की है। आचार्य जिनसेन ने आदिपुराण में कवियों, गमकों, वादियों और वाग्मियों में समन्तभद्र का यश चूड़ामणि की भाँति सर्वोपरि निरूपित किया है। इसी भाँति जिनसेन सूरि ने हरिवंशपुराण' में, वादिराजसूरि ने 'न्याय विनिश्चय विवरण' तथा 'पार्श्वनाथचरित' में, वीरनन्दि ने 'चन्द्रप्रभचरित' में, हस्त्तिमल्ल ने 'विक्रान्त कौरव नाटक' में तथा अन्य अनेक ग्रंथकारों ने भी अपने-अपने ग्रंथ के प्रारम्भ में इनका बहुत ही आदरपूर्वक स्मरण किया है। इससे समन्तभद्र स्वामी का वैदृष्य, ज्ञान-गरिमा, पूजनीयता और परवर्ती आचार्यों पर प्रभाव भली-भाँति ज्ञात होता है।" "समन्तभद्राचार्य ने अनेकान्तवाद एवं स्याद्वाद के माध्यम से जिन-शासन-दर्शन की सर्वतोन्मुखी उन्नतिकर भारतीय दर्शन के चहुंमुखी विकास में विलक्षण योगदान दिया है। उनकी उत्कृष्ट और अलौकिक रचनाओं में भव्यजीवों के कल्याण की भावना निहित है।" जिन विद्वान् लेखकों ने अपनी रचनाएं भेजकर इस अंक के प्रकाशन में सहयोग प्रदान किया उन सभी के प्रति हम आभारी हैं। संस्थान समिति, सहयोगी सम्पादक, सम्पादक मण्डल एवं सहयोगी कार्यकत्ताओं के प्रति भी आभारी हैं। मुद्रण हेतु पॉपुलर प्रिन्टर्स धन्यवादार्ह है। डॉ. कमलचन्द सोगाणी
SR No.524765
Book TitleJain Vidya 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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