SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनविद्या 18 सिद्ध-सारस्वत । अन्तिम दो विशेषणों से स्पष्ट है कि वह आज्ञासिद्ध थे - जो आदेश देते थे वही होता था और सिद्ध सारस्वत होने के कारण सरस्वती उन्हें सिद्ध थी। ___ अर्हद्भक्त समन्तभद्र के युक्त्यनुशासन' का मुख्य प्रतिपाद्य यही है कि वीर-शासन की द्वितीयता नहीं है। वीर-शासन की दृष्टि से वस्तु-तत्व अभेद-भेदात्मक है। स्वामी समन्तभद्र ने बौद्धों के क्षणिकात्मवाद का विस्तारपूर्वक खण्डन करते हुए उनकी दृष्टि को विभ्रान्त कहा है। प्रतीत होता है सर्वथा शून्यवादी बौद्धों के असंगत मत के खण्डन के लिए ही आचार्य समन्तभद्र ने ‘युक्त्यनुशासन' की रचना की है। आचार्यश्री का दृढ़ मत है कि सत् और असत्रूप वचन की व्यवस्था स्याद्वाद से ही सम्भव है। इस संदर्भ में उन्होंने चार्वाकों के नितान्त भूतचैतन्यवादी सिद्धान्त के प्रति हार्दिक खेद व्यक्त किया है। चार्वाकों के इस मत का कि जगत् स्वभाव से स्वच्छन्दवृत्ति है, इसलिए हिंसामूलक कार्य में कोई दोष नहीं है, प्रचण्ड खण्डन करते हुए लिखा है कि चार्वाक इस प्रकार की हिंसा का समर्थन करनेवाली सैद्धान्तिक प्रवृत्ति की घोषणा करके स्वयं विभ्रम में पड़ गये हैं और 'दीक्षासममुक्तिमान' बन गये हैं। मूल कारिका द्रष्टव्य है - स्वच्छन्दवृत्तेर्जगतः स्वभावा - दुच्चैरनाचार - पथेष्वदोषम् । निर्युष्य दीक्षासममुक्तिमाना - स्त्वदृष्टि-बाह्या वत: विभ्रमन्ति ॥37॥ इस कारिका में 'दीक्षासममुक्तिमान' पद द्वयर्थक है। प्रथम अर्थ में, उन मान्त्रिकों को संकेतित किया गया है जो मन्त्रदीक्षा के साथ ही अपने को मुक्ति का अधिकारी मान लेते हैं और यम-नियमरहित दीक्षा को हिंसा आदि अनाचार की क्षयकारिणी समर्थ दीक्षा समझते हैं। दूसरे अर्थ में आचार्यश्री ने उन मीमांसकों को आड़े हाथों लिया है जो कर्मों के क्षय से उत्पन्न अनन्त ज्ञान आदि को मुक्ति नहीं मानते, यमनियम आदि को दीक्षा नहीं स्वीकारते और जगत् को भूत चैतन्यवादी, स्वच्छन्दवादी प्रवृत्ति बताकर पंचमकार के सेवन में भी कोई दोष नहीं देखते। साथ ही, एक ओर वे वेदविहित पशुघात जैसे अनाचारी मार्ग को निर्दोष कहते हैं और दूसरी ओर वेदबाह्य ब्रह्म-हत्या आदि को सदोष बताते हैं। ऐसे वदतोव्याघाती दार्शनिकों की दूषित प्रवृत्तियों पर आचार्य समन्तभद्र ने ततोऽधिक खेद प्रकट किया है। ___आचार्य समन्तभद्र का मन्तव्य है कि वीर जिन की अनेकान्त दृष्टि अद्वैतवादियों अथवा एकान्तवादियों के लिए बाधक है; क्योंकि वीर-दृष्टि में तत्त्व तो अनेकान्तात्मक है। अनेकान्त भी अशेषरूप लिये हुए अनेकान्त-रूप है । यह अनेकान्त द्रव्य और पर्याय की दृष्टि से दो प्रकार का है। यह जो विशेष और सामान्यात्मक भेद है वह वीर भगवान् के स्याद्वाद-शासन में अभेद-बुद्धि से अविशिष्ट और भेदबुद्धि से विशिष्ट होता है। इस संदर्भ में निम्नांकित कारिका द्रष्टव्य है - विशेष-सामान्य-विषक्त-भेद - विधि व्यवच्छेद-विधायि-वाक्यम्। अभेद-बुद्धे रविशिष्टता स्याद् व्यावृत्तिबुद्धेश्च विशिष्टता ते ॥60।। कविर्मनीषी समन्तभद्र ने वीर-स्तुति की समाप्ति करते हुए कहा है कि जिन वैतण्डिकों-परपक्ष में
SR No.524765
Book TitleJain Vidya 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy