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दिगन्ते श्रूयते मदमलिनगण्डाः करटिन: करिण्यः कारुण्यास्पदमसमशीलाः खलु मृगाः । इदानीं लोकेऽस्मिन्ननुपमशिखानां पुनरयं नखानां पाण्डित्यं प्रकटयतु कस्मिन्मृगपतिः ।।
जैनविद्या 18
अर्थात्, मद से मलिन कपोलवाले हाथी, दया की पात्र हथिनियाँ और असदृश स्वभाववाले मृगजैसे पण्डित मेरे वैदुष्य के भय से दूर भाग खड़े हुए। अब मेरे जैसा पण्डित - सिंह अपने पाण्डित्य-रूप नखों की तीव्रता प्रकट करे तो किस पर ?
ठीक इसी प्रकार, अपने समय में, आचार्य समन्तभद्र ने भी अपने प्रकाण्ड वैदुष्य की दुन्दुभि भारत की सभी दिशाओं में निनादित की थी। एक अप्रतिद्वन्द्वी सिंह के समान क्रीड़ा करते हुए उन्होंने निर्भयता के साथ शास्त्रार्थ के लिए समग्र भारत का भ्रमण किया था। एक बार वह विद्या की उत्कट भूमि करहाटक नगर पहुँचे और वहाँ के तत्कालीन राजा को अपना परिचय इस प्रकार दिया -
पूर्वं पाटलिपुत्र- मध्यनगरे भेरी मया ताडिता पश्चान्मालव- सिन्धु-ठक्क-विषये काञ्चीपुरे वैदिशे । प्राप्तोऽहं करहाटकं बहुभटं विद्योत्कटं संकटं वादार्थी विचराम्यहं नरपते शार्दूलविक्रीडितम् ॥
(श्रवणबेलगोला शिलालेख सं. 54)
स्वामी समन्तभद्र के इस आत्म-परिचय से यह स्पष्ट है कि वाद या शास्त्रार्थ-यात्रा के क्रम में उनके करहाटक पहुँचने के पूर्व उन्होंने अन्य जिन देशों और नगरों का भ्रमण किया था उनमें सर्वप्रथम पाटलिपुत्र (वर्तमान पटना) में अपनी वैदुष्य-दुन्दुभि बजाई थी। तत्पश्चात् उनके भ्रमण-स्थानों में मालव (मालवा), सिन्धु, ठक्क (पंजाब), कांचीपुर (कांजीवरम्) और विदिशा (भिलसा) जैसे देश और जनपद प्रमुख थें । इन स्थानों में उन्होंने शास्त्रार्थ की जो विजय - वैजयन्ती फहराई थी उसके विरोध का साहस कोई नहीं दिखा
सका था।
आचार्य समन्तभद्र के इस शास्त्रार्थी मिजाज और तेवर की तल्खी 'युक्त्यनुशासन' में निहित पूरे वीर-स्तवन में पुंखानुपुंख-रूप से दृष्टिगत होती है। स्तोत्र के माध्यम से उन्होंने दृढतापूर्वक परमत का खण्डन और आर्हत मत का सयुक्तिक मण्डन किया है। उन्होंने पाण्डित्य-प्रदर्शन के क्रम में स्वयं अपने को दस विशेषणों के माध्यम से सिद्ध सारस्वताचार्य घोषित किया है.
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आचार्योऽहं कविरहमहं वादिराट पण्डितोऽहं दैवज्ञोऽहं भिषगहमहं मान्त्रिकस्तान्त्रिकोऽहम् । राजन्नस्यां जलधिवलयामेखलायामिलाया माज्ञासिद्ध: किमिति बहुना सिद्धसारस्वतोऽहम् ।।
स्वयम्भूस्तोत्र में आकलित इस श्लोक में स्वामी समन्तभद्र के दस विशेषण इस प्रकार हैं आचार्य, कवि, वादिराज, पण्डित, दैवज्ञ (ज्योतिषी), भिषक् (वैद्य), मन्त्रिक, तान्त्रिक, आज्ञासिद्ध और