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जैनविद्या 18
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प्रतिक्षणं स्थित्युदय - व्ययात्म
तत्त्वव्यवस्थं सदिहार्थरूपम् ॥48॥ अर्थात्, दृष्ट या प्रत्यक्ष और आगम के अविरुद्ध अर्थ (साधनरूप अर्थ) से अर्थ (साध्यरूप अर्थ) का प्ररूपण ही युक्त्यनुशासन अथवा युक्ति वचन है और इस अर्थ का रूप प्रतिक्षण स्थिति (ध्रौव्य), उदय (उत्पाद) और व्यय (नाश)-रूप तत्त्व-व्यवस्था से संवलित है; क्योंकि वह सत् है।
आचार्य समन्तभद्र ने भी इस ग्रन्थ की रचना का मूल उद्देश्य वीर-स्तवन ही बताया है। इस ग्रन्थ के प्रथम श्लोक से बासठवें श्लोक तक का निबन्धन उपजाति छन्द में हुआ है और तिरसठवें-चौंसठवें श्लोक को शिखरिणी छन्द में आबद्ध किया गया है। वीर-स्तवन का सूचक तिरसठवाँ श्लोक इस प्रकार है -
न रागानः स्तोत्रं भवति भव-पाश-च्छिदि मुनौ न चाऽन्येषु द्वेषादपगुण-कथाऽभ्यास-खलता। किमु न्यायाऽन्याय-प्रकृत-गुण-दोषज्ञ-मनसां
हितान्वेषोपायस्तव गुण-कथा-संग-गदिता ॥ 63॥ अर्थात्, यह स्तोत्र वीर भगवान् जैसे भवपाशनाशक मुनि के प्रति निवेदित है। यह न तो उनके प्रति रागभाव से या दूसरों के प्रति द्वेष भाव से रचा गया है । यह तो भगवान के हितान्वेषण के उपाय-रूप गुणकीर्तन के साथ-साथ उनके लिए लिखा गया है जो न्याय और अन्याय को पहचानना चाहते हैं और जो प्रकृत विषय के गुण-दोषों को जानने की इच्छा करते हैं।
विद्वानों के स्वामी, स्वामी समन्तभद्र ने अपने वीर-स्तवन में वीर-शासन की महत्ता प्रतिपादित की है। उनका विश्वास है कि वीर-शासन अभद्र को भी समन्तभद्र अथवा सर्वतोभद्र बना देता है। मूल कारिका इस प्रकार है -
कामं द्विषन्नप्युपपत्तितचक्षुः समीक्ष्यतां ते समदृष्टिरिष्टम् । त्वयि ध्रुवं खण्डित-मान-शृङ्गो
भवत्यभद्रोऽपि समन्तभद्रः ।। 62॥ ___ अर्थात्, वीर-शासन का वैशिष्टय यह है कि जो इस शासन के प्रति पूर्ण विद्वेष रखता है वह भी जब मात्सर्य का त्यागकर समदृष्टि या समाधान की दृष्टि से इसका अवलोकन या समीक्षण करता है तब उसका मानश्रृंग या अहम्भाव खण्डित हो जाता है। वह सर्वथा एकान्त-रूप मिथ्यामत के आग्रह से मुक्त हो जाता है और अभद्र से समन्त-भद्र बन जाता है।
यहां शब्दशास्त्रज्ञ आचार्य कवि ने अपने नाम में निहित द्वयर्थता का उपयोग करते हुए कहा है कि अभद्र अर्थात् मिथ्यादृष्टि व्यक्ति भी वीर-शासन के माहात्म्य या प्रभाव से सब ओर भद्र या कल्याण देखनेवाला सम्यग्दृष्टि बन जाता है। ____ संस्कृत के आदि जैन कवि, वादकुशल धुरन्धर आचार्य समन्तभद्र की तुलना में हम उनके परवर्ती अगड़धत्त काव्यशास्त्री पण्डितराज जगन्नाथ को रख सकते हैं। पण्डितराज ने (भामिनीविलास में) घोषणा की थी