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________________ 54 12. 13. 14. जैनदर्शन में अवस्तु का स्वरूप । 15. अनुमान से सर्वज्ञ की सिद्धि । 16. स्यात् निपात का स्वरूप । 17. युक्तियों से स्याद्वाद की व्याख्या । आप्त का तार्किक स्वरूप । 18. 19. वस्तु (द्रव्य - प्रमेय) का स्वरूप । अनेकान्त का स्वरूप । अनेकान्त में भी अनेकान्त की योजना । उपर्युक्त योगदान के कारण ही आचार्य समन्तभद्र जैन न्याय के प्रवर्तक कहे जाते हैं। भट्ट अकलङ्कदेव तथा आचार्य विद्यानन्द ने अपने अष्टशती तथा अष्टसहस्री ग्रन्थ में मङ्गलरूप पद्यों द्वारा स्वामीजी को वर्द्धमान महावीर के विशेषण में निवेशित कर भगवान् सदृश ही नमस्कार भाव प्रदर्शित किया है। 1. 2. 3. जैनविद्या 18 श्रीवर्द्धमानमकलङ्कमनिन्द्यवन्ध, पादारविन्दयुगलं प्रणिपत्य मूर्ध्ना । भव्यैकलोकनयनं परिपालयन्तम्, स्याद्वादवर्त्म परिभौमि समन्तभद्रम् ॥ अष्टशती।। श्रीवर्द्धमानमभिवन्द्य समन्तभद्रमुद्भूत बोधमहिमानमनिन्द्यवाचम् । शास्त्रावताररचितस्तुति गोचराप्त मीमांसितं कृतिरलंक्रियते मयास्य ॥ अष्टसहस्री।। उनके व्यक्तित्व को उजागर करनेवाला यह आत्मपरिचयात्मक पद्य किंचित् भी अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं लगता, जिसमें वे कहते हैं आचार्योऽहं कविरहमहं वादिराट् पण्डितोऽहं । दैवज्ञोऽहं भिषगहमहं मान्त्रिकस्तान्त्रिकोऽहं ॥ राजन्नस्यां जलधिवलयामेखलायामिलायां । आज्ञासिद्धः किमिति बहुना सिद्ध सारस्वतोऽहं ॥ - हे राजन् ! इस समुद्रवलयरूप पृथ्वी पर मैं आचार्य, कवि, वादिराट्, पण्डित, दैवज्ञ, भिषक् मान्त्रिक, तान्त्रिक, आज्ञासिद्ध और सिद्ध सारस्वत हूँ । अन्त के दो विशेषण विशेष महत्व के हैं, जिनमें वे कहते हैं कि मैं आज्ञा-सिद्ध हूँ, जो आदेश देता हूँ वही होता है और मैं सिद्धसारस्वत हूँ, अर्थात् मुझे सरस्वती सिद्ध है। युक्त्यनुशासन - पं. जुगलकिशोर मुख्तार द्वारा लिखित प्रस्तावना, पृ. 44 । स्वयम्भू स्तोत्र - पं. जुगलकिशोर मुख्तार द्वारा लिखित प्रस्तावना, पृ. 91 । देवागम/आप्तमीमांसा, डॉ. दरबारीलाल कोठिया द्वारा लिखित प्रस्तावना, पृ. 45 । जैन मन्दिर के पास बिजनौर (उ. प्र. ) - 246701
SR No.524765
Book TitleJain Vidya 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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