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________________ जैनविद्या 18 53 गया है। सम्पूर्ण रूप से यह कहा जा सकता है कि अपने प्रतिपाद्य विषय की अपेक्षा आप्तमीमांसा गागर में सागर' की उक्ति को चरितार्थ करती है। इसके विषय की व्यापकता को देखते हुए भट्ट अकलङ्क और विद्यानन्द की टीकाओं के बाद उपाध्याय यशोविजय ने अष्टसहस्री तात्पर्यविवरण लिखा। आप्तमीमांसा भारतीय दर्शन के विश्वकोष को अपने में समाहित किए हुए है। श्री वादिराजसूरि ने न्यायविनिश्चयालंकार में लिखा है कि सर्वत्र फैले हुए दुर्नयरूपी प्रबल अन्धकार के कारण जिसका तत्व लोक में दुर्बोध हो रहा है, वह हितकारी वस्तु श्रीमत्समन्तभद्र के वचनरूप देदीप्यमान रत्नदीपकों के द्वारा हमें सब ओर से स्पष्ट प्रतिभासित हो।' . समन्तभद्र के परवर्ती जैन दार्शनिक उनसे किसी न किसी रूप में प्रभावित अवश्य हैं। उनके 'आप्तमीमांसा' नामक प्रकरण पर अकलङ्कदेव ने अष्टशती भाष्य की रचना की। आप्तमीमांसा में प्रत्येक तत्त्व को अनेकान्त की कसौटी पर कसा गया है। अकलङ्क देव ने राजवार्तिक में तत्त्वविषयक प्रत्येक सिद्धि अनेकान्त के आधार पर की है। आचार्य विद्यानन्द ने अकलङ्कदेव की अष्टशती पर आठ हजार श्लोकप्रमाण अष्टसहस्री की रचना की। सर्वज्ञ की सिद्धि में प्रायः जैन ग्रन्थकारों ने समन्तभद्र का सहारा लिया है। कई ने उनका नामोल्लेख किया है। अनेक स्थल पर उन्हें स्वामी शब्द से अभिहित किया गया है। अकलङ्कदेव (विक्रम की सातवीं शताब्दी) ने अपनी अष्टशती में समन्तभद्र को भव्यैकलोक नयन' भव्य जीवों के हृदयान्धकार को दूर करके अन्तः प्रकाश करने तथा सन्मार्ग दिखलानेवाला अद्वितीय सूर्य और स्याद्वाद-मार्ग का पालक बतलाते हुए यह भी लिखा है कि उन्होंने सम्पूर्ण पदार्थों को अपना विषय करनेवाले स्याद्वादरूपी पुण्योदधि तीर्थ को इस कलिकाल में भव्य जीवों के आन्तरिक मल को दूर करने के लिए प्रभावित किया है - उसके प्रभाव को सर्वत्र व्याप्त किया है और ऐसा लिखकर उन्हें बार-बार नमस्कार किया है। देवागम स्तोत्र के माध्यम से आचार्य समन्तभद्र ने कुछ उपादानों की सृष्टिकर उन्हें जैनदर्शन को प्रदान किया है। वे इस प्रकार हैं 1. प्रमाण का स्व-परावभासि लक्षण। 2. प्रमाण के अक्रमभावि और क्रमभावि भेदों की परिकल्पना। प्रमाण के साक्षात् और परम्परा फलों का निरूपण। प्रमाण का विषय। नय का स्वरूप। हेतु का स्वरूप। 7. स्याद्वाद का स्वरूप। वाच्य का स्वरूप। 9. वाचक का स्वरूप। 10. अभाव का वस्तु धर्म निरूपण एवं भावान्तर कथन । 11. तत्त्व का अनेकान्त रूप प्रतिपादन ।
SR No.524765
Book TitleJain Vidya 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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