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________________ जैनविद्या 18 आप्तमीमांसा ___ यथार्थ उपशदेष्टा को आप्त कहते हैं। 'यो यत्र अवञ्चकः स तत्रआप्तः - जो जहाँ अवञ्चक है वह वहाँ आप्त है, ऐसा कहा जाता है। किसी विषय पर भली-भाँति ऊहापोह करना - विचार करनातर्कणा करना मीमांसा कहलाती है। आप्तमीमांसा में कौन आप्त हो सकता है ? इसकी मीमांसा की गयी है। प्रायः प्रत्येक भारतीय आस्तिक दर्शन ने अपने मत की पुष्टि के लिए आप्त का सहारा लिया है। यदि सभी को आप्त माना जाय तो उनमें मतभेद क्यों है ? इस समस्या के निराकरण हेतु आचार्य समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा लिखी है। इसकी गम्भीर और युक्तिपरक शैली से आकृष्ट होकर ही आचार्य अकलंकदेव ने इस पर अष्टशती और आचार्य विद्यानन्द ने अष्टसहस्री की रचना की है। वह अष्टसहस्री भी इतनी कठिन है कि उसे समझने में विद्वानों को भी कष्ट सहनी का सामना करना पड़ता है। इसमें देवागम का विशेष अलङ्कार है, अतः इसे देवागमालङ्कार के नाम से भी कहते हैं अथवा समन्तभद्र द्वारा कृत आप्तमीमांसा को सामने रखकर यह व्याख्यानरूप अलंकार किया गया है, अतः इसे आप्तमीमांसालंकार भी कह सकते हैं। इस ग्रन्थ के सम्बन्ध में स्वयं ग्रन्थकार ने कहा है श्रोतव्याष्टसहस्री श्रुतैः किमन्यैः सहस्रसंख्यानैः । विज्ञायेत ययैव स्वसमय परसमय सद्भावः ।। - हजार शास्त्र के सुनने से क्या लाभ है ? केवल एक अष्टसहस्री के सुनने से ही प्रयोजन सिद्ध हो सकता है, जिसके सुनने से स्वसमय और परसमय का बोध हो जाता है। आप्तमीमांसा या देवागमस्तोत्र पर वसुनन्दि सिद्धान्तदेव का देवागम वृत्ति नामक ग्रन्थ भी है। इससे श्लोकों के अर्थमात्र की सूचना प्राप्त होती है। आप्तमीमांसा दश परिच्छेदों में विभक्त है ।इसमें देवागम नभोयान, चामरादि विभूतियों के कारण भगवान स्तुति करने योग्य नहीं हैं, इसकी सहेतुक व्याख्याकर सर्वज्ञता विषयक अनुमानकर यह सिद्ध किया गया है कि सर्वज्ञ , वीतरागपना अरहन्तदेव में ही है; क्योंकि उनके वचन युक्ति और शास्त्र के अविरोधी हैं। अविरोधी इसलिए हैं कि उनका इष्ट तत्त्व प्रसिद्ध प्रत्यक्षादि से बाधित नहीं होता है। अरहन्त मत से बाह्य, सर्वथा एकान्तवादी, आप्त के अभिमान से दग्ध लोगों का इष्टतत्व प्रत्यक्षादिप्रमाणों से बाधित होता है। स्व-पर-वैरी एकान्तवादियों के यहाँ शुभाशुभ कर्म, परलोकादि का निषेध ठहरता है। एकान्तवादियों में भावैकान्त, अभावैकान्त, भावाभावैकान्त, अवक्तव्यैकान्त, द्वैतैकान्त, अद्वैतेकान्त, द्वैताद्वैतैकान्त, अवक्तव्यैकान्त, नित्य एकान्त, अनित्य एकान्त, नित्य और क्षणिक इन दोनों का एकान्त, अवक्तव्यैकान्त, धर्म और धर्मी की अपेक्षा, अनपेक्षा का एकान्त, हेतु और आगम विषयक एकान्त, अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग तत्त्व विषयक एकान्त, दैव एकान्त, पुरुषार्थैकान्त, पुण्य-पाप विषयक एकान्त, अज्ञान से बन्ध और अल्पज्ञान से मोक्ष इत्यादि एकान्त आते हैं। इन सबकी समीक्षा आप्तमीमांसा में है। एकान्तवाद की समीक्षाकर जीवों की शुद्धि, अशुद्धि, प्रमाण का स्वरूप, संख्या, विषय और फल, स्यात् पक्ष का स्वरूप, स्याद्वाद और केवल ज्ञान की समानता, नय की हेतुवादकता, प्रमाण विषयक अनेकान्तात्मक वस्तु का स्वरूप, प्रमाण वाक्य और नय वाक्य तथा स्याद्वाद की संस्थिति का वर्णन किया
SR No.524765
Book TitleJain Vidya 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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