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________________ जैनविद्या 18 अप्रेल-1996 55 समन्तभद्र के दर्शन में 'आप्त' की अवधारणा - डॉ. राजवीरसिंह शेखावत जगत् एवं उसकी वस्तुओं के स्वरूप, उत्पत्ति, नित्यता-अनित्यता, अस्तित्व, आत्मा, मोक्ष, कर्म, पुण्य-पाप आदि विषयों को लेकर लोक में अनेक मान्यताएं प्रचलित हैं। परन्तु वस्तुतः वे सभी मान्यताएं परस्पर विरोधी होने के कारण न तो यथार्थ हैं और न ही वे वस्तुस्थिति को व्यक्त करती हैं। फिर भी उनके प्रवर्तकों ने अपनी मान्यताओं अथवा मतों के परस्पर विरोधी होने पर भी यथार्थ होने का दावा किया है। ऐसी स्थिति में सामान्यजन के सामने यह समस्या आती है कि उन प्रचलित मान्यताओं अथवा मतों में से किस मान्यता अथवा मत को सही माना जाय ? सामान्यतः यह माना जाता है कि आप्त'' के द्वारा बतलायी गई मान्यता अथवा मत ही सही है। किन्तु, प्रायः सभी मान्यताओं के प्रवर्तकों ने अपनीअपनी मान्यताओं के यथार्थ होने के दावे साथ स्वयं के आप्त होने का भी दावा किया है। परन्तु उन सभी को उनकी मान्यताओं में परस्पर विरोध होने के कारण आप्त' नहीं माना जा सकता, उनमें से किसी एक को आप्त' माना जा सकता है। अतः यहां प्रश्न उठता है कि वह आप्त' कौन है ? इस प्रश्न का विचार किया जाय इसके पूर्व दो अन्य प्रश्नों पर विचार अपेक्षित है। वे प्रश्न हैं - 'आप्त' से क्या तात्पर्य है ? और 'आप्त' का मानदण्ड क्या है ? . इन प्रश्नों के जवाब में समन्तभद्र के अनुसार जो नियम से वीतरागी, सर्वज्ञ और आगम का ईश है वह आप्त' है। नियम से 'वीतरागी', 'सर्वज्ञ' और 'आगम का ईश' होना ‘आप्त' का स्वरूप भी है और मानदण्ड भी। किन्तु प्रश्न है कि वीतरागी', 'सर्वज्ञ' और 'आगम का ईश' से क्या तात्पर्य है ? अथवा यों
SR No.524765
Book TitleJain Vidya 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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