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जैनविद्या 18
'ज्ञानार्णव' जैसे ध्यान-ग्रंथ के प्रणेता योगीराज आचार्य शुभचन्द्र ने स्वामीजी को कवीन्द्र भास्वान् जैसे सशक्त विशेषण से प्रशस्तिसूचक स्तुति की है -
समन्तभद्रादिकवीन्द्र भास्वतां स्फुरन्ति यत्रामल सूक्तिरश्णयः ।
व्रजन्ति खद्योतवदेव हास्यतां न तत्र किं ज्ञानलवोद्धता: जनाः॥ ग्यारहवीं सदी के महाकवि वादिराज सूरि ने अपने यशोधर चरित' में स्वामी समन्तभद्र को उत्कृष्ट काव्यमणियों का पर्वत' कहकर वंदना की है -
श्री मत्समन्तभद्राद्या: काव्यमाणिक्यरोहणाः।
सन्तु नः संततोत्कृष्टाः सूक्तिरत्नोत्करप्रदाः ॥ इन्हीं कवि ने अपने पार्श्वनाथ चरित' में स्वामीजी के ग्रंथों का उल्लेख करते हुए स्तुति की है - स्वामिनश्चरितं तस्य कस्य नो विस्मयावह, देवागमेन सर्वज्ञो येनाद्यापि प्रदर्श्यते । त्यागी स एव योगीन्द्रो येनाक्षय्य सुखावहः अर्थिनेभव्यसार्थाय दिष्टोरत्नकरण्डकः ॥ अन्यत्र भी लिखा है -
अचिन्त्यमहिमा देवः सोऽभिवंद्यो हितैषिणा।
शब्दाश्च येन सिध्यन्ति साधुत्वं प्रतिलंभिताः ॥ सोलहवीं सदी के भट्टारक शुभचन्द्र ने अपने ‘पाण्डव पुराण' में स्वामी समन्तभद्र की भारत भूषण' उपाधि से यशोगाथा गाई है -
समन्तभद्रोयद्रार्थोभानु भारतभूषणः ।
देवागमेन येनात्र व्यक्तोदेवागमः कृतः॥ 'जिन शतक' की टीका करते हुए कवि नरसिंह भट्ट ने स्वामी जी के गुणों की स्तुति करते हुए लिखा
समन्तभद्रं सद्बोधं स्तुवे वरगुणालयं ।
निर्मलं यद्यशष्दान्तं वभूव भुवनत्रयं ॥ आचार्य शिवकोटि ने अपनी रत्नमाला' में स्वामीजी को अपने मनमंदिर में बिठाया है -
स्वामी समन्तभद्रो मेऽहर्निशंमानसेऽनघ ।
तिष्टताजिनराजोद्यच्छासनाम्बुधिचन्द्रमाः ॥ बीसवीं सदी में स्वामी समन्तभद्र के परम भक्त आचार्य जुगलकिशोर जी मुख्तार स्वामी जी की स्तुति गाते हुए लिखते हैं -
यस्य सच्छासनं लोके स्याद्वादऽमोघलाच्छनम्। सर्वभूतदयोपेतं दमत्याग समाधिमृत ॥१॥