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जैन विद्या 18
आचार्यस्य समन्तभद्रगण भृद्येनेहकालेकलौ । जैन वर्त्म समन्तभद्रमभवद्भद्रं समन्ताद्भुहु. ॥
आचार्य अजितसेन ने अपनी 'अलंकार चिन्तामणि' में तथा कवि हस्तिमल्ल के नाटक 'विक्रान्तकौरव' की प्रशस्ति में स्वामी समन्तभद्र की वाद-विवाद प्रतिभा का बखान करते हुए लिखा है - अवटुतटमटति झटिति स्फुट - पटुवाचाट धूर्जटेर्जिह्वा । वादिनि समन्तभद्रे स्थितवति सति का कथान्येषाम् ॥
'गद्यचिन्तामणि' के कर्ता महाकवि वादीभसिंह सूरि ने स्वामी समन्तभद्र की सिद्ध सारस्वतता को प्रणाम करते हुए उनकी शास्त्रार्थज्ञता को नमन किया है -
सरस्वतीस्वैरविहारभूमयः समन्तभद्रप्रमुखाः मुनीश्वराः । जयन्तिवाग्वज्रनिपात पाटित प्रतीपराद्धान्तमहीघ्र कोटयः ॥
श्वेताम्बर विद्वान श्री हरिभद्र सूरि जो भट्टाकलंक देव जैसे से उद्भट और मूर्धन्य मनीषी थे, अपनी ‘अनेकान्तजय पताका' तथा उसकी स्वोपज्ञ टीका में स्वामी समन्तभद्र को 'वादि मुख्य' के रूप में प्रणन किया है. 'आह च वादिमुख्यः समन्तभद्रः” ।
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'हनुमच्चरित्र' के कर्त्ता ब्रह्म अजित ने स्वामी समन्तभद्र की प्रशस्ति निम्न विशेषणों से युक्त अंकित की है -
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जीयात्समन्तभद्रोऽ सौ भव्य कैरवचन्द्रमाः । दुर्वादिवादकंडूनां शमनैक महौषधिः ॥
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'आदिपुराण' के कर्त्ता भगवज्जिनसेनाचार्य प्रथम ने स्वामी समन्तभद्र को महाकवि ब्रह्मा के रूप में पुण्य स्मरण किया है
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नमः समन्तभद्राय महते व विवेधसे । यद्वचो वज्रपातेन निर्भिन्नाः कुमताद्रयः ॥
श्री अजितसेनाचार्य ने अपने 'अलंकार चिन्तामणि' ग्रंथ में स्वामीजी को आदि कविकुंजर के रूप प्रणाम किया है.
श्री मत्समन्तभद्रादिकवि कुंजर संचयम् । मुनिवन्द्यंजनानंद नमामि वचनश्रियै ।।
श्री वर्धमान सूरि ने अपने 'वरांग चरित्र' में समन्तभद्र को 'सुतर्कशास्त्रामृतसार सागर' की उपाधि से विभूषित करते हुए उनकी कृपाकांक्षा की अभिलाषा की है -
समन्तभद्रादि महाकवीश्वराः कुवादि विद्याजयलब्धकीर्तयः । सुतर्कशास्त्रामृतसारसागरा मयिप्रसीदन्तु कवित्वकांक्षिणि ॥