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जैनविद्या 18
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स्वामी समन्तभद्राचार्य की आत्मिक निर्मलता और सर्वतोभद्रत्व की सर्वोत्कृष्ट सद्भावना कारण उन्हें तीर्थंकर-प्रकृति का बंध हो गया हो तो कोई अतिशयोक्ति न होगी, उनकी अर्हद्भक्ति और सर्वोदय प्रवर्तन उन्हें इस योग्य बना सका कि वे इस भारत की इस पुण्य भूमि पर भावी तीर्थंकर होंगे ही जैसा निम्न गाथा से ज्ञात होता है कि निम्न चौबीस पुरुष नियम से तीर्थंकर होंगे ही—
अट्ठहरीणव पsिहरि चक्कि चउक्कं च एय बलभद्दो । सोजिय संमतभद्दो तित्थयरा होंति निणमेण ॥
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इसकी पुष्टि आचार्य श्रुतसागर ने अपनी षट्प्राभृत टीका में भी की है - " उक्तं च समन्तभद्रणोत्सर्पिणी काले आगामिनिभविष्यत्ततीर्थंकर परमपदेन" श्री हस्तिमल्ल और अय्यपार्य भी अपने नाटक 'विक्रान्त कौरव' तथा ‘जितेन्द्र कल्याणभ्युदय' ग्रंथ में लिखते है — “ श्रीमूल संघ व्योम्नेन्दुर्भारते भावि तीर्थंकरद् देशे समन्तभद्राख्यो जीयात ..... 'आराधना कथाकोश के कर्ता श्री नेमिदत्त भी उनके भावी तीर्थंकर होने की पुष्टि निम्न श्लोक से करते हैं -
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कृत्वा श्री मज्जिनेन्द्रात्मं शासनस्य प्रभावनां । स्वर्मोक्षदायिनीं धीरो भावितीर्थंकरो गुणी ॥
'राजावलीकथे' में भी लिखा है कि वे भावी तीर्थंकर होंगे - आभावितीर्थं करन् अप्प समन्तभद्र स्वामिगलु'। श्री श्रुतसागर (सं. 1530) ने भी पं. आशाधर जी के 'जिनसहस्त्रनाम' की टीका करते हुए स्वामी समन्तभद्र को उत्सर्पिणी काल का भावी तीर्थंकर लिखा है ' ।
स्वामी समन्तभद्र का समय भारतीय दर्शनों का क्रान्तिकाल कहलाता है। इस समय अश्वघोष, मातृचेट, नागार्जुन, कणाद, गौतम, जैमिनी जैसे उद्भट दार्शनिक विद्वानों की दार्शनिक विचारधाराएं प्रवाहित हो रही थीं जिनमें सद्वाद- असद्वाद, शाश्वतवाद - उच्छेदवाद, अद्वैतवाद - दैतवाद, अवक्तव्यवादवक्तव्यवाद इन चार विरोधी युगलों का प्रभुत्व था और इन्हीं के द्वारा तत्वचर्चाएं हुआ करती थीं पर स्वामी समन्तभद्र ने अपने क्रान्तिकारी दर्शनिक विचारों द्वारा उन चार युगलों को सप्तभङ्गों के रूप में निरूपित कर 'सप्तभङ्गी' की एक नई विचारधारा तत्कालीन दार्शनिक जगत को दी थी ।
स्वामी समन्तभद्र क्षत्रिय राजपुत्र थे। उनका नाम शान्ति वर्मा था। बाद में मुनिपद से दीक्षित हो जाने पर स्वामी समन्तभद्र के नाम से विख्यात हुए। उनके पिता श्री उरगपुर के राजा थे जो फणिमंडल (नागराज्य) नामक राज्य के अन्तर्गत था । वर्तमान 'उरैयूर' जो प्राचीन त्रिचिनापोली के नाम से प्रसिद्ध है 'उरगपुर' कहलाता था ।' यह चोल राजाओं की प्राचीन ऐतिहासिक राजधानी थी । कवि कालिदास के 'रघुवंश' में भी इसका उल्लेख मिलता है। उपर्युक्त सूचना श्रवणवेलगोल के भण्डारस्थित 'आप्तमीमांसा' की ताडपत्री प्राचीन प्रति से प्राप्त होती - यथा “ इति फणिमंडलालंकारस्योरगपुराधिपसूनोः श्रीस्वामी समन्तभद्र मुनेः कृतौ आत्ममीमांसायाम्।” कर्नाटक की 'अष्टसहस्री' की एक प्राचीन पाण्डुलिपि में समन्तभद्र के साथ • शान्ति वर्मा का भी उल्लेख मिलता है यथा “इति फणिमंडलालंकास्योरगपुराधिप सूनुना शांतिवर्मनाम्न श्री • समन्तभद्रेण" । इसकी पुष्टि उनकी रचना स्तुतिविद्या के निम्न उल्लेख से भी हो जाती है
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चित्रबद्धात्मक