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जैनविद्या 18
वाद-विवाद तथा शास्त्रार्थ किया करते थे।
स्वामी समन्तभद्राचार्य की यायावरी की सफलता का रहस्य श्री हस्तिमल्ल के प्रसिद्ध नाटक 'विक्रान्त कौरव' के निम्न वाक्य में अन्तर्हित है - “समन्तभद्राख्योमुनि यात्पदर्द्धिक' अर्थात स्वामी समन्तभद्राचार्य को आचार्य कुन्दकुन्द की भांति चारण ऋद्धि प्राप्त थी, जिस तरह आचार्य कुन्दकुन्द सीमंधर स्वामी के समवशरण में विदेह क्षेत्र पहुंचे थे उसी तरह स्वामी समन्तभद्र भी पदर्द्धिक होने के कारण सम्पूर्ण भारत का भ्रमण कर सके, इसकी परिपुष्टि जिनेन्द्र कल्याणाभ्युदय तथा राजावलीकथे के रचनाकारों (अय्यपार्य आदि) ने निम्न वाक्यों द्वारा की है - “समन्तभद्रार्यो जीयात्प्राप्तपदर्द्धिकः" तथा ... समन्तभद्र स्वामी गलु पुनर्दीगोण्डु तपस्सामर्थ्यदिं चतुरडुल चारणत्वमं पडेदु” । उनकी यायावरी का एक मानचित्र परिशिष्ट 'द' में प्रस्तुत कर रहे हैं।
स्वामी समन्तभद्र का आत्म-परिचायात्मक एक तीसरा पद्य और उपलब्ध होता है जिससे उनकी बहुविधिज्ञता का पता चलता है और उनके दस विशेषणों का परिचय देता है -
आचार्योऽहं कविरहमहं वादिराट् पण्डितोऽहं, दैवज्ञोऽहं भिषगहमहं मान्त्रिकस्तान्त्रिकोऽहं । राजन्नस्यां जलधिधवलया मेखलायामिलाया
माज्ञासिद्धः किमिति बहुना सिद्धसारस्वतोऽहं॥' वे (1) आचार्य, (2) कवि, (3) वादिराट्, (4) पण्डित (गमक), (5) दैवज्ञ (ज्योतिषी), (6) भिषग् (वैद्य), (7) मान्त्रिक, (8) तान्त्रिक, (9) आज्ञासिद्ध और (10) सिद्धसारस्वत आदि कई गुणों से युक्त थे।
स्वामी समन्तभद्र की सभी उपलब्ध रचनाएं (रत्नकरण्ड श्रावकाचार को छोड़कर) स्तुतिपरक हैं अतः आद्यस्तुतिकार के संबोधन से मनीषियों ने उनकी वंदना की है। उनकी स्तुतियां केवल गुणगानपरक ही नहीं हैं अपितु इन स्तुतियों में जैन तत्वज्ञान का दार्शनिक पक्ष आप्तत्व, अनेकान्तवाद, सप्तभंगी तथा
जैन न्याय का युक्तिसंगत विवेचन विद्यमान है। इनकी सभी रचनाएं अपर नामधारिणी हैं, जैसे(1) देवागम स्तोत्र-आप्तमीमांसा (2) युक्त्यनुशासन-वीर जिनस्तवन, (3) वृहत्स्वयंभू स्तोत्र-चतुर्विंशतितीर्थस्तव, (4) रत्नकरण्ड श्रावकाचार-उपासकाध्ययन–समीचीन धर्मशास्त्र, (5) स्तुति विद्या-जिन स्तुतिशतक, जिन शतक, जिनशतकलंकार। बाकी निम्न छः रचनाएं अनुपलब्ध हैं जिनकी शोध-खोज की आवश्यकता है - (6) तत्वानुशासन, (7) प्रमाणपदार्थ, (8) प्राकृतव्याकरण, (9) जीवसिद्धि, (10) कर्म प्राभृतटीका और (11) गंध हस्तिमहाभाष्य । कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र ने अपने 'सिद्धहैमशब्दानुशासन' में स्वामी समन्तभद्र को स्तुतिकार', श्री मलयगिरि सूरि ने 'आवश्यक सूत्र' की टीका में इन्हें आद्यस्तुतिकार' के रूप में प्रणाम किया है। इतिहास का अवलोकन करने से भी पता चलता है कि स्वामी समन्तभद्र से पूर्व स्तुतिविद्या का प्रणयन प्रारम्भ ही नहीं हुआ था अतः साहित्य की एक नई विधा के प्रवर्तक होने के कारण आप 'स्तुतिकार' या 'आद्य स्तुतिकार' के रूप में वंदनीय रहे।