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________________ जैनविद्या 18 अप्रेल-1996 35 स्वामी समन्तभद्राचार्य और उनकी यशोगाथाएं - श्री कुन्दनलाल जैन जैन वाङ्मय के इतिहास-गगन में आचार्य कुन्दकुन्द और आचार्य गृद्धपिच्छ उमास्वामि के पश्चात् स्वामी समन्तभद्राचार्य ही एक ऐसे बहुश्रुत और क्रान्तिकारी दिग्गज मनीषी दिखाई देते हैं जो प्रखर प्रतिभापुञ्ज तेजस्वी सूर्य की भांति देदीप्यमान प्रतीत होते हैं। उनकी अद्भुत ज्ञान-गरिमा और तपःपूत चारित्रनिधि सूर्यकान्त मणि की भाँति ऐसी दमकती रही कि उनके उत्तरवर्ती दिग्गज मनीषियों ने कालान्तर में उन्हें बड़े सम्मान और आदरपूर्वक अपने श्रद्धासुमन समर्पित किये तथा भक्तिपूर्वक उनकी यशोगाथाएं गाईं जो आज भी इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अङ्कित हैं। ऐसी ही यशोगाथाओं का संकलन हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं। शायद ही कोई और विद्वान ऐसा रहा हो जिसे इतना अधिक मान मिला हो। स्वामी समन्तभद्र परीक्षाप्रधानी आचार्य थे। वे रूढ़िवादी अंधभक्त न थे। वे पहले सारस्वताचार्य थे जिन्होंने देवागम नभोयान ---' इत्यादि पद्य द्वारा भगवान को चुनौती दी थी कि आपकी पूजा चामरादि वैभव के कारण नहीं होती है अपितु आप्तता के कारण ही आप वंदनीय हैं । स्वामी समन्तभद्र अपने समय के विख्यात यायावर थे उन्होंने उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम, सम्पूर्ण भारतवर्ष में विहार किया था, जगह-जगह शास्त्रार्थ किए थे और जैन धर्म के झण्डे गाड़े थे। चीनी यात्री फाह्यान (400 ई.) और ह्वेनसांग (630 ई.) जब भारत आये थे तो उन्हें अपने भारतभ्रमण में पता चला था कि इस देश की विभिन्न ज्ञान-नगरियों के राजपथों पर शासन की ओर से बड़े-बड़े नगाड़े रखे रहते थे, जब कोई विशिष्ट विद्वान घूमता हुआ उस नगरी में आकर दूसरे दिग्गज विद्वानों को शास्त्रार्थ के लिए ललकारता था तो वह उस नगाड़े को बजाता था और शास्त्रार्थी विद्वान् वहाँ एकत्र होकर
SR No.524765
Book TitleJain Vidya 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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