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________________ जैनविद्या 18 स्तुतिविद्या के 116 वें पद्य की संस्कृत टीका में आचार्य वसुनन्दिने लिखा है -षडरनववलयं चक्रमालिख्य, सप्तमवलयेशान्तिवर्म कृतं इति भवति । चतुर्थवलये जिनस्तुतिशतं इति च भवति अत: कवि काव्यनाम गर्भ चक्रवृत्तं भवति । (विस्तृत विश्लेषण परिशिष्ट ‘स पर देखिये) स्वामी समन्तभद्र का समय 120 ई. से 185 तक का सुनिश्चित होता है। स्व. जुगलकिशोर जी मुख्तार, स्व. डा. ज्योतिप्रसाद जैन एवं स्व. डा. नेमिचन्द्र शास्त्री, प्रभृति विद्वानों ने इसकी पुष्टि की है। उनके पिता नागवंशी चोल नरेश कीलिक वर्मन तथा अग्रज श्री सर्ववर्मन (शेषनाग) थे। अट्ठारह वर्ष की अल्पायु में ही आप मुनि पद पर दीक्षित हो गये थे और लगभग आधी सदी तक जैन धर्म का डंका बजाते हुए जैन तत्वज्ञान और दार्शनिक पक्षों की व्याख्या करते हुए एक क्रान्तिकारी आचार्य के रूप में अपने प्रतिद्वन्द्वियों को सम्मोहित करते हुए लगभग 185 ई. को स्वर्गारोहित हुए। ऐसा दिग्गज विद्वान और सरल परिणामी सशक्त विवक्षाकार जैनवाङ्मय में दूसरा नहीं दिखाई देता। स्व. जुगलकिशोर जी मुख्तार तो उन्हें 'भगवान' संबोधन देने में अपना गौरव समझते हैं। इस सदी में मुख्तार सा. जैसे समन्तभद्र के विशिष्ट भक्त रहे हैं वैसे ही अष्टसहस्री के निर्माता आचार्य विद्यानन्द स्वामी (नवमी सदी) भी समन्तभद्र के श्रेष्ठ प्रशस्तिवाचक रहे हैं उन्होंने स्वामी जी की जो स्तुति और प्रशंसासूचक पद्य लिखे हैं वे इतिहास में उल्लेखनीय हैं, भक्तिरस के रसिया पाठक उनका रसास्वादन कीजिए - श्रीमद्वीरजिनेश्वरामलगुणस्तोत्रं परीक्षेक्षणैः, साक्षात्स्वामी समन्तभद्र गुरु भिस्तत्वंसमीक्ष्याखिलं प्रोक्तं युक्त्यनुशासनं विजयिभि: स्याद्वादमार्गानुगैः विद्यानंद बुधैरलं कृतमिदं श्री सत्यवाक्याधिपैः ॥1॥ (युक्त्यनुशासन टीका) नित्यायेकान्तगर्त प्रपतन विवशान्प्राणिनोऽनर्थसार्था, दुद्धर्तुं नेतुमुच्चैः पदममलमलं मंगलान्नमलंघ्यं । स्याद्वादन्यायवर्त्म प्रथयदवितयार्थं वचः स्वामिनोदः, प्रेक्षावत्वाद् प्रवृत्तं जयतु विद्यटिताशेष मिथ्याप्रवादं ॥2॥ प्रज्ञाधीश प्रपूज्योज्ज्वल गुणनिक रोद्भूत सत्कीर्ति सम्प, द्विद्यानंदो दयायानवरत मखिलक्लेशनिर्णाशिनाय । स्ता द्वौः सामन्तभद्री दिनकर रुचि जित्सप्तभंगी विधीद्धा । भावाद्येकान्त चेतरित्तमिर निरसनी वोऽकलंक प्रकाशा ॥3॥ अद्वैताद्याग्रहोग्रग्रहगहन विपन्निग्रहेऽलंध्य वीर्याः, स्यात्कारामोघमंत्र प्रणयत विधयः शुद्ध सध्यानधीराः । धन्यानाम्नहधाना धतुमधिवसतां मंडल जैनमग्नं वाच: सामन्तभद्रयो विदधृ विविधां सिद्धिमुद्भूत मुद्राः ॥4॥
SR No.524765
Book TitleJain Vidya 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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