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________________ जैनविद्या 18 ततोतिता तु तेतीत स्तोतृतोतीतितोतृतः ततोऽतातिततोतोते ततता ते ततो ततः ॥13॥ एक ही अक्षर द्वारा रचित इस श्लोक में अनेक अर्थ प्रतिध्वनित हैं। कई पद्य ऐसे भी हैं जिनको अनुलोम क्रम से पढ़ने पर उसका अर्थबोध भिन्न प्रकार का होता है और प्रतिलोम क्रम से पढ़ने पर उसका अर्थ-बोध कुछ और ही हो जाता है यथा अनुलोम क्रम रक्ष माक्षर वामेश शमीचारु रुचानुतः । भो विभोन शजाजोरूनदैन विजरामय ॥86॥ प्रतिलोम क्रम यमराज विनम्रेन रूजोनाशन भो विभो । तनु चारु रुचामीश शमेवारक्ष माक्षर ॥87॥ इस प्रकार पूरी कृति का शब्द-विन्यास ही अलंकृत भाषा में प्रस्तुत है। रत्नकरण्ड श्रावकाचार __ इस कृति में सात अध्याय हैं और एक सौ पचास पद्य हैं। ग्रंथ की शैली सरस है और भाषा अर्थगरिमा से परिपूर्ण है। गुणरत्नों से भरा पिटारा है अतः इस ग्रंथ का नाम रत्नकरण्ड' उपयुक्त है। कृति में अपने विषय का प्रतिपादन समीचीन है। सम्यक्ज्ञान, सम्यक्दर्शन और सम्यक्चारित्र- इस रत्नत्रयी का भी पर्याप्त विवेचन इस ग्रंथ मे समाहित है । ग्रंथ के प्रथम अध्याय में अष्टांगसहित सम्यक्दर्शन का, द्वितीय अध्याय में सम्यक्ज्ञान का, तृतीय अध्याय में सम्यक्चारित्र का (मुनि आचारसंहिता एवं श्रावक आचारसंहिता), चतुर्थ अध्याय में दिव्रत, अनर्थ दण्डव्रत एवं भोगोपभोग व्रत-श्रावक के इन तीन गुणव्रतों का, पंचम अध्याय में शिक्षाव्रत का, छठे अध्याय में सल्लेखना का और सातवें अध्याय में श्रावक प्रतिमा का पर्याप्त विवेचन है। श्रावक-आचार सम्बन्धी सामग्री प्रस्तुत करनेवाले ग्रंथों में यह ग्रंथ प्राचीन माना गया है। वादिराज सूरि ने इस ग्रंथ को अक्षय सुखावह की संज्ञा प्रदान की है। आचार्य प्रभाचन्द्र ने इस ग्रंथ पर संस्कृत टीका लिखी है जो वर्तमान में प्रकाशित है। ___ वस्तुत: आचार्य समन्तभद्र के ग्रंथों में गंभीर दार्शनिक दृष्टियां हैं एवं आस्था का झलकता निर्झर है। आराध्य के चरणों में अपने को सर्वतोभावेन समर्पित करके समन्तभद्र स्वामी ने अपनी श्रद्धा को सुश्रद्धा कहा है। जैन दर्शन को व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत करने का श्रेय आचार्य समन्तभद्र को है। मंगल कलश 394, सर्वोदय नगर, आगरा रोड, अलीगढ़-202 001 (उ.प्र.)
SR No.524765
Book TitleJain Vidya 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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