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________________ 24 पुनाति चित्तं न पूजयार्थस्व वीतरागे, न निन्दया नाथ विवान्तवैरे । तथापि ते पुण्यगुण स्मृतिर्न:, पुनाति चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः ||57|| जैन विद्या 18 - स्वयंभू स्तोत्र - हे भगवान! पूजा-वन्दना से आपका कोई प्रयोजन नहीं है, क्योंकि आप वीतरागी हैं। निन्दा से भी आपका कोई प्रयोजन नहीं है क्योंकि आप विवान्तवैर (वैररहित) हैं। फिर भी आपके पुण्य गुणों का स्मरण हमारे चित्त को पाप-मलों से पवित्र करता है। स्तुवाने कोपने चैव समानो यन्न पावक: । भवाने कोपि नेतेव त्वमाश्रेयः सुपार्श्वकः ॥29॥ जिनशतक - हे सुपार्श्व भगवान ! आप स्तुति करनेवाले और निन्दा करनेवाले दोनों के विषय में समान हैं। रागद्वेष से रहित हैं। सबको पवित्र करनेवाले हैं, सबको हित का उपदेश देकर कर्म-बन्धन से छुड़ानेवाले हैं । अत: आप एक असहाय (दूसरे पक्ष में प्रधान) होने पर भी नेता की तरह सबके द्वारा आश्रयणीय हैं, सेवनीय हैं। - - अनु. - पं. जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर'
SR No.524765
Book TitleJain Vidya 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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