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________________ जैनविद्या 18 'अनेकांतजयपताका में वादिमुख्य' विशेषण से विशेषित किया है। ‘हरिवंशपुराण' के प्रणेता जिनसेन ने “वचः समन्तभद्रस्यवीरस्येव विजृभते'' इस वाक्य में आचार्य समन्तभद्र के वचनों को वीरवाणी के समान आदर प्रदानकर उनके महत्व को शिखर तक पहुँचा दिया है। इसके अतिरिक्त अजितसेन सूरी, सकलकीर्ति आदि मनीषियों ने भी आचार्य समन्तभद्र की प्रतिभा का लोहा माना है। आचार्य समन्तभद्र आद्य स्तुतिकार थे और बौद्ध, नैयायिक, सांख्य, वेदान्त आदि विभिन्न दर्शनों के ज्ञाता थे। सभी दर्शनों की समीक्षा करते हुए उन्होंने उच्चकोटि के साहित्य का प्रणयन किया। उनके साहित्य का परिचयात्मक विवरण इस प्रकार हैआप्तमीमांसा __ आचार्य समन्तभद्र की प्रथम रचना आप्तमीमांसा' का आरम्भ देवागम' शब्द से हुआ है। इसमें दस परिच्छेद और एक सौ चौदह कारिकाएँ हैं। एकान्तवादी दृष्टिकोणों का समुचित निरसन और आप्त पुरुषों के आप्तत्व की सम्यक् मीमांसा के कारण इस कृति का नाम आप्तमीमांसा' पड़ा। यह ग्रंथ जैनदर्शन का आधारभूत ग्रंथ है। आचार्य अकलंक ने इस ग्रंथ पर अष्टशती नामक भाष्य लिखा है। अष्टशती भाष्य पर आचार्य विद्यानंद ने 'अष्टसहस्री' नामक विशाल टीका लिखी है। यशोविजयजी ने अष्टसहस्री पर संस्कृत टीका और आचार्य वसुनंदि ने संक्षिप्त देवागम वृत्ति की रचना की है। पण्डित जयचंद छाबड़ा की एक हिन्दी टीका भी प्रकाशित है। स्वयंभूस्तोत्र इसमें चतुर्विंशति तीर्थंकरों की स्तुति होने के कारण ग्रंथ का दूसरा नाम चतुर्विंशति जिनस्तुति' भी है। एक सौ तियालीस छंदोंवाली इस रचना की शैली सरस और भाषा अलंकारपूर्ण है । युक्तिपूर्ण भावाभिव्यञ्जना दर्शनीय है । दर्शनप्रधान तथा स्तुतिप्रधान ग्रंथ में पौराणिक और ऐतिहासिक तथ्यों का समावेश रचनाकार के बहुमुखी ज्ञान का परिचायक है। विषयवर्णन की स्पष्टता इस कृति की अतिरिक्त विशेषता है। स्वतः बोध होने के कारण तीर्थंकरों को स्वयंभू कहा जाता है। प्रस्तुत स्तोत्र में तीर्थंकरों की स्तुति है अतः इस कृति का नाम 'स्वयंभू स्तोत्र' है। युक्त्यनुशासन ___ युक्त्यनुशासन अर्थगरिमा से परिपूर्ण दर्शनिक ग्रंथ है। चौसठ पद्योंवाले इस ग्रंथ की शैली संक्षिप्त सूत्रात्मक एवं गंभीर है। इसमें आप्तस्तुति के साथ विविध दर्शनिक हस्तियों का पर्याप्त विवचेन एवं स्वपर मत के गुण-दोषों का सयौक्तिक निरूपण है। इसकी भावना और शब्द संयोजना को देखने से यह प्रतीत होता है कि यह रचनाकार की प्रौढ़ रचना है। स्तुतिविद्या यह स्तवनाप्रधान ग्रंथ है। इसके चतुर्थविलय में 'जिनस्तुतिशतं' नाम का बोध होता है। इससे प्रतीत होता है 'स्तुतिविद्या' कृति का ही दूसरा नाम ‘जिनस्तुतिशतक' है । शब्दालंकार और चित्रालंकार दोनों दृष्टियों से यह स्तुतिविद्या' ग्रंथ महनीय है। आचार्य समन्तभद्र ने एक ही अक्षर के द्वारा पूरे श्लोक की रचनाकर अद्भुत सामर्थ्य का परिचय दिया है -
SR No.524765
Book TitleJain Vidya 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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